श्
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे। अहं नमामि ! अहं नमामि ! अहं नमामि ! अहं नमामि !
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
गणनायक वरदायक देवा । तुमही भजहिं मिटेही संदेहा ।।
वाणी देऊ मोहे तुम ऐसी । करूं गुनगाण भव भयहरण की ।।
मात सरस्वती कृपा मोपे कीजे । हंसवाहिणी सद्बुद्धि दीजे ।।
अवगुण मोरे क्षमा मां कीजे । गुणगाऊं प्रभू की वाणी दीजे ।।
औढ़रदानी अलख निरंजन । शीश गंग भक्तजन मन रंजन ।।
करऊं प्रणाम प्रभू पूरणकामा । आशीश देऊ प्रभू सर्व सुखधामा ।।
जय हनुमंत संत हितकारी । तुम बिन कौन मोर उपकारी ।
आशा एक मोरे मन माहीं । अपने “गुरू” को देखउं तुम्ह नाईं ।।
‘गुरूवर’ मोहे शुभ दृष्टि देओ । तोहे निहारूं दिव्य चक्षु देओ।।
“राधा राधा” हरदम गाऊं । “राधा” में स्वामी मिल जाऊं ।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
आप हो “स्वामी” जग रखवारे । कोटि कोटि जन तुमहि निहारे ।।
द्वार तिहारे जो कोई आवे । वो जन निश्चलता पुनिः पावे ।।
प्रणवों “प्रभूजी” तोरे चरणां । नमन करूं तुम धरो जहं चरणा ।।
जनम जनम तुम्हरा गुणगाऊं । भवबंधन की सुद्ध बिसराऊं।।
मैं अबोध मूरख अज्ञानी । तुम हो गुरूवर पूरण ज्ञानी ।
आशा मोरे ह्दय इक भारी । मिटे भ्रम हो प्रभू कृपा तुम्हारी ।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
कलि के फैले संताप से नर सब होय अघाय ।
पूछ रहे ‘हे परमपुरूष’ आखिर कौन सहाय।।
हर तरफ अंधकार है विकल खडे सब लोग ।
चहुं दीशा भयभीत है सुझत न कोई योग।।
क्या ऐसा कोई वीर है मनुज का हरे संताप ।
मानव जीवन धन्य हो धन्य हो धरणी आप।।
ऐसा मानव हे प्रभू प्रगट हुआ क्या जग माहीं ।
जिसको पाने से मिटे सब संताप निज मांही ।।
प्रभू की रीत बता रहे विधाता स्वयं निज मुख ।
प्रभू की रीत बता रहे स्वयं विधाता आप ।
अघात होता है नर जभी रहता न कोई ताप।
ईश्वर निज आसन में रहने न पाते आप ।।
लेकर रूप मनुज का हरने को संताप ।
कलयुग का आधार है वो अनामी नाम ।।
आ चुके वो परमपुरूष लेकर नाम को साथ।
उस अनामी नाम से धन्य हुई धरती आप ।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
सुनो मनुज मैं बात सुनाऊं । प्रभू के रीत की कथा सुनाऊं।
लखि न जाए इन नैनन से । कथा सुनो सब मन चितवन से।।
परमपुरूष रहते वहां हैं । सबसे उपर लोक जहां है।
समस्त लोक का पालनहारा । दयाल देश में रहता न्यारा।
सूरत भी पहुंचे न वहां पर । परअक्षर ब्रह्य रहें जहां पर।
अपने कुल की रीत बचाने । कुल मालिक चले राह दिखाने।।
सहस्त्रसार से उपर कई लोका । त्रिकुटी शून्य महाशून्य भ्रमर लोका ।
सतअलख अगम अकह लोका ।उपर सबसे राधास्वामी लोका।।
मानवता को फिर से जगाने । अपने कूल की लाज बचाने ।
दयाल देश से आए स्वामी । जन जन के हैं अन्तर्यामी।।
।।बोल हरि ।।
हुई खबर सब ओर देवखडे कर जोड ।
चहुं दिशा कंपित हुई कांप उठे सब लोक।।
देव सभी चल पडे बल अपना सम्भाल ।
पथ लगे बुहारने रहे वे बाट वे निहार।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
मां मनमोहिनी अति सौम्यमै । बाल्यपन से थी तेजोमयी ।
मात पिता से हठ वे करती । श्रीकृष्ण का मंत्र वे चाहतीं ।।
रात दिन यही लगन लगाती । कब आएं श्री कृष्ण मुरारी।
मां राधे तुम दर्शन दे दो । मुझे श्री कृष्ण की दीक्षा दे दो ।।
राधे राधे गोबिन्द मिलादे । मुझे महामंत्र की भिक्षा देदे ।
विकल होकर प्रार्थना करती । मन ही मन उपासना करती।।
पिता समझाने लगे कन्या को । बाल्यपन में न मिला किसी को।
सुध बुध भूली इक रात में । विहल हो उठी मूर्ति के पास में।।
मात पिता फिर फिर समझाते । रात में ठाकुर शयन हैं करते।
रात्रि में जिस दिन वे जगेंगे । स्वयं तुम्हें वे मन्त्र देवेंगे।।
बाट जोहती रही वो कन्या । मन्त्र देवेगा कब कृष्ण कन्हैया।
छ वर्ष की व्याकूल हो गई । बालपना का खेल भूल गई।।
।।बोल हरि ।।
हर क्षण हर घडी वो कहती सुबह और शाम ।
रात रात वो जागती श्री कृष्ण विग्रह के पास।
अर्धरात्रि में एक दिन हुई अचम्भित बात ।
प्रभू मूर्ति चैतन्य हुई प्रगटी रश्मि अपार।।
देखती रही मनमोहिनी लगी टकटकी लगाय ।
उज्जवल ज्योतिर्मय छवि दिव्य प्रकाश झलकाय।।
प्रगट हुए इक संत पुरूष प्रकाश पुंज के साथ ।
मनु चाहिए क्या तुझे मूर्ति से हो रहा नाद।।
शुद्ध बुद्ध भूली बालिका चरणों को चित्त लगाय ।
मंत्र मंत्र मुझे चाहिए बही अंसुवन की धार।।
उदात्त धीर स्पष्ट स्वर गुंज उठा इक नाद।
झंकृत हो रहा तन मन मिला अनामि नाम।।
राधायुक्त चतुष्ट्य मंत्र प्राप्त किया सस्वर।
धन्य वो पावन घडी धन्य वो परम अक्षर।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
मात पिता सुनी सब बातां । विहल हुए मन नहीं अघाता।
कन्या दिन दिन बढती जाए । स्वप्न दृष्ट मंत्र रटती जाए।।
कछुक समय बीते एहीं भांति । रहती मगन कन्या दिन राति।
मात पिता दोनों बतलावे । मिले सुपात्र विवाह हो जावे।।
शांडिल्य गोत्र पबना के वासी । ईश्वरचन्द्र गृहस्थ सन्यासी ।
दानवीर पुत्र शिवचन्द्र विशेषा । आदर्श नेमी सरल लवलेषा।।
दृढ नियम अतीथि सत्कारा । देखें सबमें प्रभू को प्यारा।
प्रत्यक्ष की पूजा पहले करना । हरदम उनका ऐसा कहना।।
जो जन आते उनके निवासा । पाते शांति मिटता कलेषा।।
दानवीर सत्भाषी महेषा । रहते सहज भाव निज देशा।।
शुभ समय शुभ लगन जब आया । मनु को पत्नीरूप में पाया ।
लीला कहीं कुछ और हो रही । प्रकृति अपना खेल रच रही।।
।।बोल हरि ।।
प्रभू की रीत निराली है न्यारे उनके काम ।
मां बनी मनमोहिनी पिता शिवचन्द्र महान् ।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
हाथों से निज सेवा करतीं । अविरल मंत्र निशदिन जपती ।
जान सकी न प्रभू की रीती । धरणी पर गुरू स्वप्न की मूर्ति ।।
एक दिवस कुछ ऐसा आया । मनु ने गुरू को सन्मुख पाया।
पुलकित नैन अश्रु भर आए । स्वप्नदृष्ट गुरू सन्मुख पाए।।
कह न सकी कुछ मुख से वाणी । अपलक देखती रही वो रानी ।
आसन से बोली गुरू मूर्ति । 'मां सुशीला!' आवाज ये गुंजी ।।
मां तेरे घर मालिक आएं। धरती का भार स्वय् उठाएं ।
विस्मित हुई सुन गुरू की वाणी । समझ सकी ना कछु भी सयानी.
बहुत पसारा दुर्जनों का । नहीं किनारा सद्जनों का।।
खल बल शक्ति से घिर आते । वधू कन्या पर वार वे करते ।।
दल बल हो अत्याचार वे करते । न्याय प्रिय हो न्याय वे करते ।
सहमे थे सब सज्जन लोगा । खडे पुकार बहुत मन योगा ।।
।।बोल हरि ।।
जाति भेद प्रबल था आहत था सद् समाज।
विकल हो रहे लोग सब सहमे गृह के माय।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
अन्तर्द्रष्टा गुरूवर ग्यानी। त्रिकाल के वे सुविज्ञानी।
गुरू की बात मनु मन माहीं।बैठ गई कछु सुध बुध नाहीं।।
उदार ह्दया तेजस्वनी बाला।नाम में लीन हुई सब काला।
सतत जाप गुरू मंत्र का करती।मधूसूदन के आसरे रहती।।
आर्त स्वर में अंतःस्तल से।हर घडी जपती हर पल क्षण में।
आर्त हो जब भक्त पुकारे।निराकार प्रभू शिशु बन आए।।
जब प्रभु आये मत गर्भ में . प्रगटी आभा माँ के तन में
दिन दिन बढती जाये . स्फूर्ति माँ बनी ज्यों विशिष्ट विभूति।।
साधू समाज घिर घिरकर आते।अनजाने रहस्यों को बताते।
माता तू है बडी बडभागन। दिव्य किलकारी गुंजे तेरे आंगण।।
नभ में देव गण करें प्रार्थना।पूरी होगी सकल कामना।।
सब मिलकर गुणगान हैं करते। प्रभु आने की बाट हैं जोहते।।
।।बोल हरि ।।
धरती मन मन ध्या रही नमन करें सब लोक।
माता सरस्वती वन्दना करे खडे देव कर जोड।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
वायु मन्द मन्द यूं बहती। स्निग्ध सुशीतल मन को करती।
पक्षी नीड पर कलरव करते।हरि आवन की घोषणा करते।।
बाजी चर्हुंलोक शंख शहनाई।देवी देवता दुदुंभी बजाई।
जहं तहं मगंल गान हो रहे। भांत भांत के पुष्प खिल रहे।।
हरिबोल के शब्द गुंज रहे।स्नेह से मन सब विहल हो रहे।
धरती नभ जल हरषित होते।बहु बिध सब जन पूजा करते।।
हर्षित हो रहे जग लोका। नाम के नामी आए लोका।
ऋषि महिर्षि निज आसन माहीं।हरि आए अब चिंता नाहीं।।
गृह प्रांगण हुए आलोकित।सबके ह्दय हो रहे पुलकित।
भादो महीना बहुत ही पावन।प्रभात की बेला अति मन भावन।।
ताल नौमी शुक्रवार विशेषा। आए पालक जग के महेशा।
प्रातः सात पांच मीनट पर। अवतीर्ण हुए प्रभू इस धरणी पर।।
।।बोल हरि ।।
सारा लोक आलोक हुआ आए कूल के नाथ।
धरणी का भार उतारने शक्ति को ले साथ।।
विप्रों ने किया नामकरण नाम हुआ अनुकूल।
श्री श्री ठाकुर नाम से हुए जगत के पूज्य।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
सर्व शरीर सुगठित ऐसा।तेज तपोबल विद्युत जैसा।
गौर वदन तपे स्वर्ण की भांति।लम्बी भुजाएं देती विश्रांति ।।
कमल नयन मुख उनके सोहे।सुन्दर ऐसे मन को मोहे।
अद्भूत बालक आया गृह माहीं।रूण झुण पैजनी बाजी पग माहीं।।
कभी धरणी पे बैठे झूला। दिन दिन बढे शिशु अनुकूला।
मोहित मात मन माहीं होती। झांकी पे न्योछावर होती ।।
हर दिन लीला होती बहु भांति।माता भी कुछ समझ न पाती।
घुटनों के बल चल रहे ऐसे। जगपालक बालक के जैसे।।
कोमल चरण भूमि पे धरते।दसों दीशाएं जयजय करते।
परिजन सबजन नयन भर तकते।शैशवलीला ह्दय में भरते।।
आसपास के लोग सब आते।बाल लीला को देख अघाते।
कोई कहे नटखट बालक है।कोई कहे ये कूल मालिक है।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
मात मनमोहनी बहुत उदारा।अनुशासन उन्हें सबसे प्यारा।
पुत्र है अनुपम कहते लोगा।ईश्वरीय शक्ति सब भांति जोगा।।
अन्नप्रासन का अवसर आया।बहुत प्रकार मोद मनाया।
सजी यात्रा बहुत प्रकारा।बालक माहीं लगा अति प्यारा।।
मंगल गान बहुं भांति हो रहा। अन्नप्रासन का विधान हो रहा।
रूप माधुरी बालक मुख चमके।विद्युत भांति सब अंग अंग दमके।।
झलक पाने होड सब करते।मन में प्रेम विशेष हैं धरते।
बारम्बार लोग सब निहारें।ह्दय मांही कुछ और बुहारे।।
नाना प्रकार उत्पात वे करते। नित पडोसी उलाहना देते।
माता जबजब करती रोषा।पडोसी कहते अनुकूल के नहीं दोषा।।
दिव्य लीला करते दिन राति।अनुपल चरित्र दिव्य बहुं भांति।
सबके मन को मोहते ऐसे।गगन में चंदा चकोर को जैसे।।
।।बोल हरि ।।
कभी बाग उजाडते कभी खेलते पक्षी के साथ।
मन्दिर में जा लेपते चंदन अपने माथ।।
वाणी बोलते जो जिसे सच्ची होती हर भांत।
सब विस्मित रह जाते सुन बालक की बात।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे।
अहं नमामि ! अहं नमामि ! अहं नमामि ! अहं नमामि!
।।बोल हरि ।।
।। जन्मकथा प्रसंग सम्पूर्णम्।।
“रा”
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे।
अहं नमामि!अहं नमामि! अहं नमामि ! अहं नमामि !
नाम महिमा
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
ठाकुर हमारे धरणी पर आए। आर्त दुखी जन शांति पाए।
शांति के दाता परम विधाता।नाम सुमिरकर सतपथ पाता।।
अन्तर के सब मर्म वे जानें।अन्तर के सुप्त भाव जगावें।
अन्तर्मन की शक्ति बढावें।अन्तर्मन में नाम जगावें।।
नाम के साथ आए नामी । जन जन के हंै वो हित कामी ।
सबके स्वामी अन्तर्यामी । नमामी नमामी नमामी नमामी।।
नाम नाम की धून जगाओ।रात दिवस मन में तुम गाओ।
अन्दर नाम बाहर भी नाम। नाम नाम बस नाम ही नाम।।
नाम नाम में मन को लगालो।जीवन अपना दिव्य बनालो।
धर्म की महिमा भिन्न बताते । निज सुख का सब भेद समझाते।।
अन्तर में सतनाम जगाते । नाम की धून में सबको रमाते ।
जप तप दान व्रत से निशदिन।काया छिजती दिन दिन क्षिण क्षिन।।
अन्तःकरण से तुम्हें जो पुकारे । आश्रय होकर रहे तुम्हारे ।।
सतनाम है कलीकाल की शक्ति।इसी नाम से आए भक्ति।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
ठाकुर की महिमा है न्यारी।इष्टवृति से करें रखवारी।।
इष्ट को जानो सुन ऐ प्राणी।इष्ट बिना नहीं कुछ ऐ गामी।।
इष्ट कौन है तुम ये जानो।इष्ट से रिश्ता अभी पहचानो।
इष्ट से तेरी है जयकार।इष्ट बिन सुना संसार।।
इष्ट से रिश्ता जोडें कैसे।इष्ट बिन बन्धन टूटे कैसे।
इष्ट से जुडकर चल ओ प्राणी।दुनिया है ये आनी जानी।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
ब्रह्या बिष्णू और महेशा।संग रहते ठाकुर के हमेशा।
जीवंत इष्ट ठाकुर को जानो।परम तत्व का भेद तुम मानो।।
धर्म क्या है जानो तुम बन्दे।कर्म की गति पहचानो बन्दे।
यजन याजन करों तुम निशदिन । इष्टभृति तुम करो निश दिन।।
शिव ठाकुर में भेद नहीं है।जहां ठाकुर हैं वेद वहीं है।
वेद वाक्य है उनकी वाणी।दया मिले तर जाए प्राणी।।
ठाकुर को जो शिव जी माने।शिव ठाकुर में भेद न जाने।
उन भक्तों की बात निराली।अपने बल पर करे रखवाली।।
परम पुरूष को जो जन जाने । ईश्वर की लीला पहचाने ।
सत् आचार पर चल रे बन्दे । अपनी सूरत को धरले बन्दे।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
धर्म का मर्म कुछ ये समझाते । अस्तिवृद्धि की बात बताते।
अस्तित्व की रक्षा होती कैसे।मनमुखी मारग पाए कैसे।।
ठाकुर की है बात निराली। भक्तों की करते रखवाली ।
जो जन जाने उनकी माया । सरल रीति से वो बच पाया ।।
आत्म बोध जन जन में जगाते । निज सूरत से आप मिलाते।
खंडित उनके दोष हैं होते। शरण में उनके जो हैं रहते।।
आचार विचार का मर्म बताते । सत पथ की है राह दिखाते।।
वास करे भक्तन के उर में । अभयदान देते पल क्षीण में ।।
सब देवन है तिहारे गामी । सकल जगत के आप हो स्वामी ।
अभीष्ट मनोरथ सिद्ध कर देते । क्षण में मोह ममता हर लेते ।।
प्रेम ही जीवन प्रेम ही पूजा।प्रेम से बढकर काज ना दूजा।
प्रेम ही भक्ति प्रेम ही शक्ति । प्रेम ही सार है प्रेम ही मुक्ति।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
परम दयाल वे कहलाते।परम मार्ग है वो दिखलाते।
परम प्रभू परमेश्वर हैं वो।विश्वेश्वर जगदीश्वर हैं वो।
आत्म बुद्धि आत्म ज्ञान का।रास्ता ऐसा निज कल्याण का।
स्वधर्म को जानले प्राणी।आया बताने जग का स्वामी।।
सत को जानो सत को मानो।अन्तर के ठाकुर को जगालो।
मन अपना निर्मल होता है।चित अपना शीतल होता है ।।
चित में जागे जब वो मुरारी।भेद बुद्धि मिट जाती सारी।
सारा जग अपना सा लगता है। आत्म ज्ञान स्वयं जगता है।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
निज दुर्बलता है शत्रु समान।शक्ति निष्फल होती तमाम।
अपनी शक्ति आप बचाओ। उंचे कर्म में खुद को लगाओ।।
ठाकुर तो हैं तुम्हरे पासा।नाम प्रभाव से आएं पासा।
भ्रम से तुमको बचना होगा। अपने विवेक पर चलना होगा।।
कपट भाव से बचना होगा।सत के पथ पर चलना होगा।
देने की प्रकृति जगाओ। पाने का सद्मार्ग तुम पाओ।।
पाने से पहले देना होगा।प्रत्याशा बिन जीना होगा।
जीने का मार्ग बहुत ही उंचा।द्वन्द बुद्धि से बचो हमेशा।।
औरों के जीवन को बचाओ।धर्म का उंचा मार्ग तुम पाओ।
सबके अन्दर इष्ट है तेरा।देखे बिन कभी हो न सवेरा।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
सम भाव से जग चलता है।भाव बिगडे तब क्या रहता है।
इष्टवृति समता देवेगी।समता ही तो विषमता हरेगी।।
पडे जो प्राणी विषम राह में।इष्टवृति जगाओ चाह में।
इष्टवृति से ईष्ट जगेगा।ईष्ट जगे तो क्या न मिलेगा।।
ईष्टवृति बिन पूजा कैसी।ईष्टवृति महाव्रत के जैसी।
ईष्टवृति तुम करलो प्राणी। दुनिया में तेरी रहे कहानी।।
जीवन का पथ बहुत कठिन है।कौन जाने कब रात और दिन है।
जीवन ये फिर कभी न मिलेगा। ईष्टवृति सब बिघ्न हरेगा।।
पंच विधान पर चलना होगा। दृढता का भाव धरना होगा।
इष्टवृति आर्यों की नीति। यही तो है जीवन की युक्ति।।
नम्रता मधुरता का भाव बनेगा। जीवन में अनुपम शौर्य जगेगा।
ठाकुर आए सबको बचाने। बचने बढने का मार्ग बताने।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
पृथ्वी का भार उतरे ना तब तक।निज कर्म पर न चले कोई जब तक।
कर्म क्या है जानो पहले।अपने वैशिष्ट्य को जानो पहले।।
वैशिष्ट्य जिसका जैसा जगेगा।चलन उसका वैसा उभरेगा।
वैशिष्ट्य पाली वे कहलाते।सबके अपने वैशिष्ट जगाते।।
निश दिन जीवन तेरा जैसा। कर्म प्रभाव होगा ही वैसा।
निष्ठा उनके प्रति आज जगालो।अपने कर्म की गति अपनालो।।
निज निष्ठा बिन कर्म ही कैसा।कर्म बिना धर्म निभे ना वैसा।
कर्म से अपना धर्म टिका है। धर्म से अपना जग ये बचा है।।
मात पिता संग रहते हो कैसे।भाव उनके प्रति संजोते कैसे।
मात पिता है ईष्ट समान।अन्तर्मन से करो सम्मान।।
मां के प्रति श्रद्धा जगाओ।जीवन बगिया तुम महकाओ।
पिता के प्रति जगाओ टान।धरती पर रहेगी हरदम शान।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
सफलता की बेदी सदाचार है।इससे बढता सत आचार है।
सत आचार से मन बस होवे।नही तो चकाचौंध में खोवे।।
सत आचार से सत बढता है।सत से स्व तेज बढता है।
जीवन में जब तेज न होवे।मानुष जनम वृथा ही खोवे।।
मानुष जनम सफल हो तेरा।ठाकुर चरणों में बसाओ डेरा।
ठाकुर हैं सब जग के स्वामी।करो प्रणाम चढाओ प्रणामी।।
टका पराया मानुष अपना। यह तो है ठाकुर का कहना।
जितना सको मनुज को पाओ। जनम जनम की साध तुम पाओ।।
मनुष्य जीवन कितना अनमोल। इसका लगाओ कोई न मोल।
मनुष्य बचेगा धर्म बचेगा। नहीं तो जीवन कहां धरेगा।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
पत्नी की स्वामी में भक्ति हो जैसी।संतान उनको मिलती है वैसी।
सुंसतान को पाना होगा।संस्कार उनका बचाना होगा।।
सुसंतान को धरा पर लाओ।जग को सुन्दर तुमही बनाओ।
उंचे विचार उंचा आचार।घर में जगाओ सदाचार।।
तप कर सूरज पूजा जाता।संत समाज भी तप कर आता।
तप बिन कोई बात न बनती।तप से सारी बिगडी है बनती।।
अपने मन को ऐसा बनाओ। औरों की पीडा उसमें बसाओ।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
और कहीं कुछ सार नहीं है।उनसे कोई पार नहीं है।
जान सके कोई भेद न उनका। चारों ओर प्रकाश है उनका।।
जीवन अपना पार तुम करलो।ठाकुर चरणों का ध्यान तुम धरलो।
श्रुति को जगाने हरि ही आए।हरि की गति कोउ जान न पाए।।
हरि पुकारे द्वार तुम्हारे।श्रुति जगालो हरि के दुलारे।
कारण पुरूष हैं वे जग पालक। हैं सतचालक हैं सतचालक।।
करो समर्पित दुख जीवन के।स्वीकार करेंगे हर्षित होके।
राह पर तेरे संग चलेंगे।बिघ्न बाधा सब वे हर लेंगे।।
मात स्वरूपिणी उनकी मूर्ति।जगालो मन में प्रभू की ज्योति।
मात मात जब मन ये पुकारे।ठाकुर आएं द्वार तुम्हारे।।
ठाकुर युग के प्राण आधारे।सुमिरण करलो पाओ पारे।
ठाकुर ठाकुर मन जब गाए।ठाकुर सांस की डोरी चलाए।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
ब्रह्यानन्द स्वरूप तिहारा।परम पिता जग पालन हारा।
सर्वव्यापक प्रभू पूरणकामा। स्वीकार करो मेरा प्रणामा।।
त्रिविध ताप से व्याकुल लोगा।पथ बिमुख भ्रान्ति सब जोगा।
चित्त को भ्रमित न होने देते।सहज मार्ग में स्थिर करते।।
हर घडी निज रूप में रहते।श्रुति में जगे श्रुति में वे रमते।
नाम से सारे विपद टल जाए।स्मरण से सारी बात बन जाए।।
ध्यान ठाकुर का हरदम धरो तुम। निज तत्व को जागृत करो तुम।
ध्यान ठाकुर का करो तुम ऐसे। निज तत्व का आभास हो जैसे।।
अन्तर का सब ज्ञान जगालो। अपने स्वत्रूप को स्वयं सम्भालो।
अन्धकार में भटक रहे प्राणी।अज्ञान के दर्प में डूबे अज्ञानी।।
जीवन अरण्य में पार न पाते।ठाकुर उनको किनारे लाते।।
उनकी भक्ति करो सब भांति।मिले विश्रांति पाओ शांति।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे।
अहं नमामि ! अहं नमामि ! अहं नमामि ! अहं नमामि !
।।बोल हरि ।।
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