संदीपन

12 फ़र॰ 2010

शांति क्यों नहीं ?

प्रश्न :
जीन्दगी में शांति क्यों नहीं है ?
उत्तर :
इस लिए कि हम शांति की बात तो करते है पर शांति के रास्ते पर हम चलते नहीं ।
प्रश्न :
ऐसा भी नहीं है।
हम हमेशा सबकी भलाई करते है। सदा एक अच्छे रास्ते पर चलते है धर्म का काम करते है सदा इन पांच विचारों का ख्याल रखते है :
  1. किसी का हक़ न ले।
  2. किसी को बुरी बात न कहे।
  3. अन्याय का पैसा घर में नहीं लाये।
  4. गरीबो की सेवा करे।
  5. धार्मिक पुस्तकों का अध्यन करे। फिर मेरे जीवन में शांति क्यों नहीं? हर कदम पर एक हार मिलती है । हमेशा जीवन में एक अभाव बना रहता है। आखिर क्यों ?
उत्तर :
हमारे ठाकुर ने कहा है : अच्छा करने से ही जीवन के अभाव चले जाएँगे, शांति मिल जाएगी यह जरुरी नहीं है।
हां ! अच्छा हमें करना चाहिए, जिससे हमारे उत्थान का रास्ता बंद नहीं होता।
लेकिन अभाव को भगाना है, शांति को लाना है तो आपको ऐसे किसी मास्टर के पास जाना होगा जिन्होंने अभाव अशांति को नियंत्रित किया है।
शांति शांति का जप करने से शांति तो आयेगी नहीं !
अगर आप योग सीखना कहते है तो योग के गुरु के पास जाते है न!
तो शांति चाहिए तो किन रास्तो पर चलने से शांति मिलती है यह भी तो जानना होगा !
आज मनुष्य के पास सब कुछ है पर ठाकुर जी की तरह कोई जीवंत आदर्श नहीं है। हम कुछ बनना चाहें तो कैसा बने ? कोई सटीक पिक्चर हमारे पास नहीं ।
कहने को ठाकुर जी अब हमारे पास नहीं ! लेकिन उन्होंने कृपा कर श्री श्री दादा और पूज्यनीय बबाई दा जैसे जीवंत आदर्श हमें देकर गए है ।
जिनका संग कर हम यह जान पाते है कि जीवन क्या है? इस जीवन को जीने का तरीका क्या है ?
यह कोई अलग रास्ता नहीं है परन्तु यह वो रास्ता है जो हमारे जीवन में आने वाली बाधा व्याधियों को कैसे नियंत्रित किया जाये यह समझाता है।
वह भी इतने स्वाभाविक रूप से, जैसे हमें साँस लेने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
उसी भांति, ठाकुर जी न जाने कब कैसे हमारे जीवन से उन सभी गलत परवर्तियों को नियंत्रित कर लेते है कि हमें कुछ भी पता ही नहीं चलता ।
यह थोरी है कि कोई व्रत करना होगा, तप करना होगा।
वह तो मानव मानव के बीच एक ऐसे प्रेम की सृष्टी पैदा कर देते है कि सभी अपने लगते है।
उसी तरह से जैसे हमें अपना बच्चा अपना लगता है।
हमें अपने को समझाना पड़ता है क्या कि यह मेरा बेटा है ?
उसी भांति सारा संसार अपना हो जाता है।

भजन

प्रार्थना
नमन करू मैं बारम्बार……………
नमन करू मैं बारम्बार……………
हे परमेश्वर हे जगदीश्वर खडा हूं तेरे द्वार
नमन करू मैं बारम्बार……………
कोटि जनम के बाद हे स्वामी …………पायो दर्शन आज
नमन करू मैं बारम्बार……………
हे जग स्वामी. अन्तर्यामी …………पायो न तेरो पार
नमन करू मैं बारम्बार……………
कण कण में प्रभू छवि तुम्हारी …………सारा जग आसार
नमन करू मैं बारम्बार……………
जप तप साधन कछु भी न जानूं …………शरण में लेलो आज
नमन करूं मैं बारम्बार………………
चरणों में अपने रखलो मुझको …………हो मेरा निस्तार
नमन करू मैं बारम्बार……………
नमन करू मैं बारम्बार……………



मोरे हो तुम खेवनहार

मोरे हो तुम खेवनहार………हो मोरे देवा ……
तुम बिन न कोई आधार ………हो मोरे देवा ……
मोरे हो तुम ……
यह जग है इक भ्रम की माया निकल न पाते हम
सांसो का बस आना जाना जीवन का है अंत
करलो मुझको स्वीकार हो…मोरे देवा…………
तुम बिन न कोई आधार ………हो मोरे देवा ……
मोरे हो तुम ……
सूना था मेरे दिल का कोना ज्योत जगाए तुम
विश्राम दिया जीवन को ऐसा जब चरणों में आए हम
रखना तुम हमको सम्भाल हो… मोरे देवा………
तुम बिन न कोई आधार ………हो मोरे देवा ……
मोरे हो तुम ……
इक इक सांस में तुझे पुकारूं मति देना ऐसी
चरणों की प्रभू धूल बनपाऊं सुमति देना ऐसी
अंत में देना न बिसार…हो मोरे देवा
तुम बिन न कोई आधार ………हो मोरे देवा ……
मोरे हो तुम ……


 
अभिनन्दन

अभिनन्दन.....अभिनन्दन..... प्रभू बार बार अभिनन्दन।
अभिनन्दन ! अभिनन्दन ! प्रभू बार बार अभिनन्दन।।टेर।।

प्रभू जबसे तुमको पाया तब हटा तम का साया।
करूं हर पल वन्दन  ! प्रभू बार बार अभिनन्दन।।
अभिनन्दन ! अभिनन्दन ! प्रभू बार बार अभिनन्दन।।1।।

पूजा की विधि ना जानूं. ना सेवा की विधि जानूं।
जग बना शीतल चन्दन ! प्रभू बार बार अभिनन्दन।।
अभिनन्दन ! अभिनन्दन ! प्रभू बार बार अभिनन्दन।।2।।


४ 
 बहुत दूर रहते तुम……… दूर रहते तुम……


कैसे आऊं मैं देवा.......
कैसे आऊं मैं प्रभूजी..............
बहुत दूर रहते तुम……… दूर रहते तुम……
हां…दूर रहते तुम……बहुत दूर रहते तुम……

मेरे पैरों में देवा बेडी पडी है………2 नैनों में अंसुवन…2
दूर रहते तुम……………………
कैसे आऊं मैं देवा !....... कैसे आऊं मैं प्रभूजी !.......

अपने ह्रदय को प्रभूजी कैसे दिखाऊं………2 तुम हो सम्पूर्ण…2
दूर रहते तुम……………………
कैसे आऊं मैं देवा !...... कैसे आऊं मैं प्रभूजी!.....
तेरी कृपा बिन प्रभूजी दरस कैसे पाऊं……2 दे दो दरशन…2
देवा दूर रहते तुम……………………
कैसे आऊं मैं देवा !............. कैसे आऊं मैं प्रभूजी !

कैसे आऊं मैं देवा !...........कैसे आऊं मैं प्रभूजी!...............
बहुत दूर रहते तुम……… दूर रहते तुम…………दूर……


 
मनवा प्रभू आए तेरे द्वार

मनवा प्रभू आए तेरे द्वार मनवा प्रभू आए तेरे द्वार।
मनवा प्रभू आए तेरे द्वार मनवा…………………।
मन की पीडा धर चरणों में ……2 सुनेंगे बारम्बार………
मनवा प्रभू आए तेरे द्वार मनवा…………………।
जिस जीवन को दिया प्रभू ने ……2 आए उसको सम्भाल ………
मनवा प्रभू आए तेरे द्वार मनवा…………………।
जप तप साधन कुछ भी न मांगे ……2
मांगें केवल प्यार……… मनवा प्रभू आए तेरे द्वार मनवा…………………।
जीवन पथ को रौशन करले ……2
मौका मिला इस बार ……… मनवा प्रभू आए तेरे द्वार मनवा…………………।


६ सुरतिया हुई आज निहाल


सुरतिया हुई आज निहाल। सुरतिया हुई आज निहाल।।
सुरतिया हुई आज निहाल……………

इन नैनों ने दरशन पाया मन न होत सम्भाल।
सुरतिया हुई आज निहाल……………।।

मन के द्वार में प्रगटे प्रभूजी मिला चैन सब भांत।
सुरतिया हुई आज निहाल……………।।

ज्ञानी ध्यानी पार न पाए फंसे भ्रम की जाल।
सुरतिया हुई आज निहाल……………।।

श्री चरणों में प्रीत लगाई हुआ ये कैसा कमाल।
सुरतिया हुई आज निहाल……………।।


७  
बहे अंसुवन कि धार

बहे अंसुवन की धार प्रभू मेरी विनती सुनो इस बार।
विनती सुनो इस बार प्रभू मेरी…………………।।

धीरज मेरा छुटा जाए कहुं किसे करतार।
कहुं किसे करतार प्रभू मेरी…………………।
विनती सुनो इस बार प्रभू मेरी…………………।।

श्री चरणों में रखलो मुझको विनती बारम्बार।
विनती बारम्बार प्रभू मेरी…………………।
विनती सुनो इस बार प्रभू मेरी…………………।।

सुना है कितने पापी तारे मेरा भी करो निस्तार।
करो मेरा निस्तार प्रभू मेरी…………………।
विनती सुनो इस बार प्रभू मेरी…………………।।

तज कर सबकुछ द्वार खडा हूं रखदो सिर पर हाथ
सिर पर रखदो हाथ प्रभू मेरी…………………।
विनती सुनो इस बार प्रभू मेरी…………………।।


८ सर्वोत्तम ..........
सर्वोत्तम ! पुरूषोत्तम ! न कोई तुमसे उत्तम।
सर्वोत्तम ! पुरूषोत्तम ! न कोई तुमसे उत्तम।
नहीं कोई तुमसे ऊत्तम …………………2

दीन दुखी के सहारे हो। भक्तों के नैन के तारे हो।
ज्योतिर्मय जग को बनाने। बन आए तुम नरोत्तम।।
सर्वोत्तम ! पुरूषोत्तम ! न कोई तुमसे उत्तम।
नहीं कोई तुमसे ऊत्तम …………………2


सदियों से तुम्हें ढूंढ़ रहे। अब तक क्यूं तुम दूर रहे।
दया अपनी बरसादो। तेरे चरणों में आए हम।।
सर्वोत्तम ! पुरूषोत्तम ! न कोई तुमसे उत्तम।
नहीं कोई तुमसे ऊत्तम …………………2

मैं जब भी पुकारूं आना प्रभू ! नहीं मुझको भूल न जाना प्रभू !
है जनम जनम का रिश्ता। नहीं दुनिया में खो जाएं हम।।
सर्वोत्तम ! पुरूषोत्तम ! न कोई तुमसे उत्तम।
नहीं कोई तुमसे ऊत्तम …………………2

परमप्रेममय श्री श्री ठाकुर

आर्यावर्त की भूमि पर आर्य संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा के लिए युग पुरुषोत्तम श्री श्री ठाकुर अनुकुलचंद्र जी का 
अविर्भाव भाद्र माह, पुण्य तालनवमी तिथि शुक्ल पक्ष दिनांक १४ सितम्बर, सन् १८८८ पूर्व बंगाल यानि आधुनिक बांग्लादेश के पबना जिला के हिमायत पुर ग्राम में उस समय हुआ जब अतृप्त, छुद्धित, तृषित जगत में कुसंस्कार से दबी धारा क्लांत हो रही थी।
इर्ष्या द्वेष और प्रतिहिंषा के भावः से दबा राष्ट्र विदेशी ताकतों और साम्प्रदायिकता की आग में झुलश रहा था। बिदेशी पद्यति पर राजनैतिक आन्दोलन प्रारम्भ किए जा रहे थे। भारतीय संस्कृति की भावः धारा को बगैर समझे वरिष्ठ राजनेता पश्चिमीकरण का अन्धानुकरण कर रहे थे। धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदार मानव मानव में विभेद करा रहे थे।
ऐसे दूषित व कुत्सित मनोधरा से प्रशस्त शताब्दी में श्री श्री ठाकुर जाती धर्म संप्रदाय के एकत्व के निमित अनादी व अनंत प्रेम का स्पर्श प्रदान करने इस धारा पर विराजित हुए।
श्री श्री ठाकुर के मतानुसार : " प्रत्येक सच्चा धार्मिक व्यक्ति सच्चा हिंदू भी है सच्चा मुस्लमान भी है और सच्चा इसाई भी है। जहाँ कही इसमे व्यतिकर्म दिखाई देता है वहां धर्म नहीं है धर्म के नाम पर कृत्रिमता है पाखंड है।
इस बात को उन्होंने सिर्फ़ कहा ही नही धर्म समन्वय की बात कहकर वे मौन नहीं रहे बिकी हिंदू सिख
इन सबको बिना धर्म परिवर्तन कराये एक ही मंत्र द्वारा दिक्चित करके अध्यात्मिक अनुभूतियों की समानता की सत्यता का अनुभव कराया। व्यक्ति जब अपने शरीर से साधना बल द्वारा सत्य चैतन्यशक्ति एव आत्मसाक्षात्कार की उपलब्धि प्राप्त करता है तब अनुभूतियाँ अलग अलग कैसे हो सकती हैं।
वैज्ञानिक द्रिष्टिकोण से अध्यात्मिक सत्य की अन्वेषण शाला खोलकर श्री श्री ठाकुर ने धर्म समनवय की द्रिस्ती से एक नया द्रिस्तिकों जगत को दिया।

धर्म परिवर्तन को विश्वश्घट कहते हुए उन्होंने स्पस्ट कहा :- "कभी कोई महापुरूष धर्म त्याग कराने नही आते महापुरुष आते है परिपूर्ण करने.उन्नति और विकाश के पथ को विस्तृत करने। "
धर्म परिवर्तन का अर्थ है पित्र रक्त धारा को विछिन्न करना। पित्र रक्त धारा में रहता है जिव कोष का अविनश्वर फूल ! इस अविनश्वर फूल अर्थात बिज़ में पित्र पुरुषों का ज्ञान रूप ओज विशेष शक्ति विराजित रहती है। धर्म परिवर्तन से ज्ञान उस अमित रक्त धारा में अविरोध आ जाता है अविनश्वर शक्तिधर से जिव वंचित रह जाता है। उन्नत जिव कोष दूषित और चिन्न्तर हो जाता है, जिसके कारण विश्वास घातकता का मादा बढ़ जाता है, आत्मिक विश्वास मर जाता है। पित्र रक्त धारा से विछिन्न धर्मान्तरित व्यक्ति की ईश्वरीय धारा पर आस्था स्थाई नही रह पाती।
इस लिए किसी अवतार ने धर्म परिवर्तन की बात नही की, बल्कि अविनश्वर पित्र शक्ति धारा को उन्नत करने की बात बताई है। इसलिए जो अपनी पित्र धारा से वांची वंचित हो गए है उन्हें पुनः अपनी पित्र धारा में लौट आना चाहिए।"
श्री श्री ठाकुर के सर्व धर्म महातीर्थ में सिर्फ़ धर्म पिपासु ही नहीं आये बल्कि रास्ट्रीय विधातागन भी अपनी आनेक समस्या के समाधान हेतु समय समय पर आते रहे।
राजनीती पर अपना द्रिस्तिकोंह स्पस्ट करते हुए खा :- राजनीती है पुर्त निति! अर्थात् पूर्ण करने की निति .राजनीती धर्म का ही अंग है. बहरी वास्तु नहीं!"
श्री श्री ठाकुर एक ऐसे जीवंत आदर्श के रूप में मनुष्य मात्र के सामने उपस्थित हुए जिनके समक्ष सम्पूर्ण वाद विवाद, वृति- प्रवृति, नियंत्रित रहे। उन्होंने अपने असंख्यों अनुयाइयों के ह्रदय के अज्ञान को दूर कर प्रेम स्पर्श द्वारा आन्तरिक सुख का एक विलक्षण पथ प्रशस्त किया। उन्होंने एक तरफ़ आध्यात्मिकता को जीवन वृद्धि की दिशा में बढ़ने का पता दिखाया तो दूसरी और विज्ञानं को अमरितवा की प्राप्ति की दिशा में लगने का रास्ता बताया।
श्री श्री ठाकुर का प्राकट्य एक ऐसे सर्व त्यागी के रूप में हुआ जिन्होंने कभी किसी का त्याग नही किया बल्कि सबको जीवन वृद्धि की दिशा में लगने का नविन मार्ग दिखाया।
श्री श्री ठाकुर ने एक ऐसे मानवीय दल का सृजन किया जो अविश्वाश, अप्रेम भरे वर्तमान दूषित माहौल में विश्वाश, प्रेम, मिलन, भाईचारा के स्वर्गराज्य का निर्माण कर रहा है।
प्रेम और पावनता के उद्गाता इस महामानव ने अस्ति वृद्धि के निमित सम्पूर्ण मनुष्य जाती को यजन, याजन, इष्टवृति का अमोघ कवच देकर अभयदान दिया।
मानव जाती के उनयन्न के लिए अपनी अनगिनत वाणियों के मध्यम से धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, विवाह, सुप्रजानन, विज्ञानं, न्यायनीति, कूटनीति, राजनीती, प्रवृति, निवृति, सिक्षा इत्यादि असंख्य विषयों पर विज्ञानं सम्मत समीक्षा की।
वर्तमान समाया में लुप्त हो रही नारी मर्यादा की उच्च परिकष्ठा को प्रतिष्ठित करने के लिए नारी निति पुस्तक के मध्यम से नारी समाज को अपने वैशिस्ट में पुनः जाग्रत होने का आह्वान किया।
श्री श्री ठाकुर की अमिया वाणियों का दुर्लभ संग्रह विभिन् पुस्तकों के रूप में सत्संग में प्रकाशित हो चुके हैं।
विश्वव्यापी लोककल्याण के प्रचेस्ता श्री श्री ठाकुर ने विनाश के कगार पर खरी दुनिया में प्रेम करुणा का ऐसा महाशस्त्र चलाया है जहाँ उनके असंख्य अनुयाई बासुदेव कुटुम्बकम के महाभाव में एक सुंदर, स्थिर, शान्ति प्रद जीवन जीते हुए प्रेम राज्य में समाहित हो रहे हैं।

श्री श्री ठाकुर के जनम दाता


पिता : श्री श्री ठाकुर के पिता शिवचंद्र जी पबना जिलान्तर्गत ग्यवाखारा ग्रामनिवासी शाण्डिल्य गोत्रीय पंडित ईश्वरचंद्र चक्रवर्ती के कनिष्ठ पुत्र थे। वे सरल सात्विक उदार प्रकृति के आदर्श गृहस्थ थे और गृहस्थी जीवन का मुख्य व्रत अतिथि सेवा उन्हें प्राणो से ज्यादा प्रिय थी।
अतिथि को भोजन कराकर ही उन्हें संतोष नहीं मिलता बल्कि अभ्यागत को साक्षात् नारायण का रूप समझकर उनकी पूजा अर्चना करते। उनकी दानवीर प्रकृति अत्यन्त भिन्न थी। उनका समस्त सहाय्य दान सम्पुर्न्तः गुप्त रहता।
परिवार परिजन वाले भी उसका पता नहीं पाते। वे दान द्रिस्ती से दान नही करते बल्कि सर्वात्म अनुभूति से भावित होकर प्रत्याशा रहित दान करते। वे विद्वान महात्यागी एवं कर्मठ पुरूष थे।
माता : श्री श्री ठाकुर की माता मनामोहनी देवी बुद्धिमता एवं धर्म प्रयाण महिला थी।बचपन से ही राधा मदन मोहन की परम आराध्य थी। पुरवा साँची सद्कर्मों और शुद्ध भक्ति की प्रबलता से मात्र ८ वर्षों की उम्र में उन्हें सद्गुरु श्री श्री हुजुर महाराज से स्वप्न में सतनाम की प्राप्ति हुई। मनमोहिनी देवी को बहुत दिनों तक यह ज्ञात न था की स्वप्न में मंत्र देने वाली गुरु मूर्ति धरा पर जीवंत है। बहुत समय बाद मनमोहिनी देवी को गुरु दर्शन हुए। स्वप्न दर्शित गुरु की दिव्य मूर्ति साक्षात् अपने सन्मुख विराजित देख विस्मित रह गई।
माता मनमोहिनी को देखते ही गुरुदेव व्याकुल कंठ से कह उठे :- " माँ! सुशीला तुम आ गई?"
मनमोहिनी देवी अपने गुरु के चरणो में सरधा भक्ति से नतमस्तक हो गई।
सद्गुरु अंतर्द्रस्ता होते हैं। त्रिकालज्ञ होते हैं। अन्तर्भेदी द्रिष्टि से भूत वर्तमान भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है यह जानकर ही उनकी वाणी प्रषारित होती है।
माता मनमोहिनी की अंतर्भावना गुरुदेव से छुपी नहीं रही। दया, परोपकारिता, सौहाद्रिता, उदारता, सदाचार और पतिपरायाणताको, तेज़स्विता से सुसंपन्न महासौभाग्यशालिनी को देख गुरुदेव सहसा कह उठे :- " माँ! तेरे घर कूल मालिक स्वयं आएंगे।"
गुरुदेव के दर्शन के पश्चात् वे उठते बैठते सतनाम का सतत जाप किया करती। धीरे धीरे यह सतनाम उनके कंठ का स्वर मस्तिष्क की स्मृति जीवन चेतना बन गया। अन्तर से वह कूल मालिक को पुकारती।
चतुर्दिक अत्याचार अन्नाचार से पीरित परिवेश से विदग्ध हो वह तपस्वनी उस महामानव को संसार उद्धार के निमित्त अवतरित होने की आतुर ह्रदय से हर घड़ी प्रार्थना की या करती ।
अविरल नाम जपते जपते पवन ह्रदय से आर्ट क्रंदन करते करते उनका मन शरीर पर परिशुद्ध हो गए। अस्रुपुंह नयन से अहर्निश प्रभु चरणों में उनकी प्रार्थना पहुँचने लगी। प्रेमाश्रु में बल होता है आर्ट स्वर में प्रेम स्पर्श वेदना होती है अनारात्मा की आवाज़ से निर्गुण निराकार अन्नादि अन्नंत ईश्वरीय मूर्ति पिघल ही गए और सन्न १८८८ सरवन शुक्ला नवमी शुक्रवार को प्रथ ७ बजाकर ५ मिनुत पर पुरुषोत्तम इस धारा पर अवतरित हुए। नाम हुआ अनुकूल !
आज वाही दिव्य बालक श्री श्री ठाकुर के नाम से जगत पूज्य हुए।

श्री मन्दिर

युग पुरूष युग पुरुषोत्तम श्री ठाकुर के भारत वर्ष स्थित विशिस्ट श्री मन्दिर
देवघर (झारखण्ड)
बदलापुर (मुंबई)
बंगलोर
भद्रक (उड़िशा)
भिलाई ( मध्यप्रदेश)
भुबनेश्वर (उड़िशा))
कोल्कता (बंगाल)
चाकन ( महारास्ट्र)
चेन्नई (तमिलनाडु)
चित्यल (उड़िशा)
कट्टक ( उड़िशा)
गुवाहाटी ( असम)
हैदराबाद ( आंध्र प्रदेश)
इंदौर ( मध्यप्रदेश)
जयपुर ( राजस्थान)
जमाल्दः ( बंगाल)
जमशेदपुर (झारखण्ड)
कानपूर (उत्तरप्रदेश)
लेमालो (उड़िशा )
मिदनापुर ( बंगाल)
दिल्ली
पटना (बिहार)
पोर्ट ब्लेयर (अंदमान)
पुरी (उड़िशा )
रौकेला (उड़िशा)
शिलोंग (मेघालय)
सिन्दूर (कर्णाटक)
सूरत ( गुजरात)
तिरुचिरापल्ली ( तमिलनाडू)
अगरतल्ला (त्रिपुरा
तुरा (मेघालय)

श्री श्री ठाकुर : साहित्य सूचि

श्री श्री ठाकुर : साहित्य सूचि

संसार की हर समस्या के निवारण हेतु समय समय पर श्री श्री ठाकुर ने विभिन्न वाणियों के आधार पर जब जब जो जो कहा उनका सत्संग देवघर द्वारा प्रकाशित संकलन :


BOOKS IN BENGALI-

  1. SATYANUSARAN
  2. ANUSHRUTI
  3. ARYA-PRATIMOKSHA
  4. SHIKSHA-VIDHAYANA
  5. NISHTA-VIDHAYANA
  6. ADARSH-VINAYAK
  7. VIGYAN BIBHUTI
  8. SANGYA SAMEEKSHA
  9. DARSHAN-VIDHAYANA
  10. VIKRITI-VINAYANA
  11. NAARI NEETI
  12. SHASHWATI
  13. DHRITI-VIDHAYANA
  14. PREETI-VINAYAK
  15. DEVI-SUKTA
  16. JEEVAN DEEPTI
  17. VIGYAN-VINAYAK
  18. VIVAH-VIDHAYANA
  19. PUNYA PUNTHI
  20. CHALAR SATHI
  21. PATHER KADI
  22. SEVA-VIDHAYANA
  23. ARYAKRISHTI
  24. NEETI-VIDHAYANA
  25. KRITI-VIDHAYANA
  26. ASHIS-VANI
  27. PRARTHNA
  28. NANA PRASANGE
  29. ALOCHANA PRASANGE
  30. ISHTA PRASANGE
  31. UPASANA
  32. DAYAL THAKUR
  33. SRI SRI THAKUR
  34. AMIYA LIPI

BOOKS IN ENGLISH-

  1. SATYANUSARAN
  2. THE MESSAGE (DIVINE UTTERANCES OF SRI SRI THAKUR ON DIFFERENT SUBJECTS)
  3. MAGNA DICTA (ANALYTICAL SOLUTIONS OF THE DIVERSE PROBLEMS OF MAN)
  4. LORD’S PRAYER
  5. BLESSINGS(IN PRESS)
  6. GLOWING GLOW OF LIFE
  7. DISCOURSES OF THE IDEAL
  8. WHO THOU THE REVOLUTIONARY
  9. BENIGN LORD
  10. DISCOURSES
  11. SRI SRI THAKUR
  12. THOU ART THE BLISS

BOOKS IN HINDI-

  1. SATYANUSARAN
  2. CHALAR SATHI
  3. VIGYAN VIBHUTI
  4. PREETI-VINAYAK
  5. PATHER KADI
  6. SHASHWATI
  7. ARYAKRISHTI
  8. SANGYA SAMEEKSHA
  9. ANUSHRUTI
  10. NAARI NEETI
  11. JEEVAN DEEPTI
  12. ALOCHANA-PRASANG (4 VOLUMES)
  13. ISLAM-PRASANG
  14. ISHT-PRASANG
  15. SRI SRI THAKUR ANUKULCHANDRA AUR DESHBANDHU CHITRANJJAN
  16. PURUSHOTTAM
  17. SRI SRI THAKUR ANUKULCHANDRA
  18. YUG PURUSH AUR YUG DHARMA
  19. DAYAL THAKUR
  20. BHAJAN DEEPALI
  21. UPASANA

BOOKS IN ORIYA-

  1. SATYANUSARAN
  2. KRITI VIDHAYANA
  3. JEEVAN DEEPTI
  4. PREETI-VINAYAK
  5. NARIR-NITEE
  6. SAMVITI
  7. PATH-KAURI
  8. SWASHTYA AO SADACHAR SUTRA
  9. SANGYA SAMEEKSHA
  10. SAT-VIDHAYANA
  11. ADARSH-VINAYAK
  12. CHALAR SATHI
  13. SHASHWATI
  14. VIVAH-VIDHAYANA
  15. DEVI-SUKTA
  16. ASHISH VANI
  17. NANA PRASANGE
  18. KATHA PRASANGE
  19. ALOCHANA PRASANGE
  20. NARIR PATHE
  21. DEEP RAKSHI
  22. ISHTA PRASANGE
  23. SRI SRI THAKUR ANUKULCHANDRA
  24. UPASANA
  25. DAYAL THAKUR

BOOKS IN OTHER लैंग्वेज

  1. ASSAMESE: SATYANUSARAN/ DAYAL THAKUR/ NARIR-NITEE/ UPASANA/ PATHER KARI/CHALAR SATHI…
  2. SANTHALI: SATYANUSARAN/ DAYAL THAKUR/ NARIR-NITEE/ UPASANA
  3. NEPALI: SATYANUSARAN/ DAYAL THAKUR/ NARIR-NITEE
  4. MARATHI: SATYANUSARAN/ DAYAL THAKUR/ UPASANA
  5. TELUGU: SATYANUSARAN/ DAYAL THAKUR/ UPASANA
  6. BODO: SATYANUSARAN/ DAYAL THAKUR/ NARIR-NITEE
  7. GUJRATI: SATYANUSARAN/ DAYAL ठाकुर
  8. TAMIL: SATYANUSARAN/ UPASANA/ DAYAL THAKUR
  9. THAR: SATYANUSARAN
  10. KHASI: SATYANUSARAN
  11. MANIPURI: SATYANUSARAN

OTHER PUBLICATIONS:

  1. ALOCHANA (BENGALI MONTHLY NEWSPAPER)
  2. URJANA (ORIYA MONTHLY NEWSPAPER)
  3. LIGATE (ENGLISH MONTHLY NEWSPAPER)
  4. SATWATI (HINDI MONTHLY NEWSPAPER)
  5. AGAMBANI (ASSAMESE MONTHLY NEWSPAPER)
  6. SWASTISEVAK (BENGALI MONTHLY NEWSPAPER)
  7. UDVARTHAN (ENGLISH AND TELEGU)

ठाकुर जनम गाथा



श्
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे।
अहं नमामि ! अहं नमामि !  अहं नमामि ! अहं नमामि !
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
गणनायक वरदायक देवा । तुमही भजहिं मिटेही संदेहा ।।    
वाणी देऊ मोहे तुम ऐसी । करूं गुनगाण  भव भयहरण की ।।
मात सरस्वती कृपा मोपे कीजे । हंसवाहिणी सद्बुद्धि दीजे ।।
अवगुण मोरे क्षमा मां कीजे । गुणगाऊं प्रभू की वाणी दीजे ।।
औढ़रदानी अलख निरंजन । शीश गंग भक्तजन मन रंजन ।।
करऊं प्रणाम प्रभू पूरणकामा । आशीश देऊ प्रभू सर्व सुखधामा ।।
जय हनुमंत संत हितकारी । तुम बिन कौन मोर उपकारी ।
आशा एक मोरे मन माहीं । अपने “गुरू” को देखउं तुम्ह नाईं ।।
‘गुरूवर’ मोहे शुभ दृष्टि देओ । तोहे निहारूं दिव्य चक्षु देओ।।
“राधा  राधा” हरदम गाऊं । “राधा” में स्वामी मिल जाऊं ।। 
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
आप हो “स्वामी” जग रखवारे । कोटि कोटि जन तुमहि निहारे ।।
द्वार तिहारे जो कोई आवे । वो जन निश्चलता पुनिः पावे ।।
प्रणवों  “प्रभूजी” तोरे चरणां । नमन करूं तुम धरो जहं चरणा ।।
जनम जनम तुम्हरा गुणगाऊं । भवबंधन की सुद्ध बिसराऊं।।
मैं अबोध मूरख अज्ञानी । तुम हो गुरूवर पूरण ज्ञानी ।
आशा मोरे ह्दय इक भारी । मिटे भ्रम हो प्रभू कृपा तुम्हारी ।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
कलि के फैले संताप से नर सब होय अघाय ।
पूछ रहे ‘हे परमपुरूष’  आखिर कौन सहाय।।
हर तरफ अंधकार है विकल खडे सब लोग ।
चहुं दीशा भयभीत है सुझत न कोई योग।।
क्या ऐसा कोई वीर है मनुज का हरे संताप ।
मानव जीवन धन्य हो धन्य हो धरणी आप।।
ऐसा मानव हे प्रभू प्रगट हुआ क्या जग माहीं ।
जिसको पाने से मिटे सब संताप निज मांही ।।
प्रभू की रीत बता रहे विधाता स्वयं निज मुख ।
प्रभू की रीत बता रहे स्वयं विधाता आप ।
अघात होता है नर जभी रहता न कोई ताप।
ईश्वर निज आसन में रहने न पाते आप ।।
लेकर रूप मनुज का हरने को संताप ।
कलयुग का आधार है वो अनामी नाम ।।
आ चुके वो परमपुरूष लेकर नाम को साथ।
उस अनामी नाम से धन्य हुई धरती आप ।। 
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
सुनो मनुज मैं बात सुनाऊं । प्रभू के रीत की कथा सुनाऊं।
लखि न जाए इन नैनन से । कथा सुनो सब मन चितवन से।।
परमपुरूष रहते वहां हैं । सबसे उपर लोक जहां है
                      समस्त लोक का पालनहारा । दयाल देश में रहता न्यारा                        
सूरत भी पहुंचे न वहां पर । परअक्षर ब्रह्य रहें जहां पर।
अपने कुल की रीत बचाने । कुल मालिक चले राह दिखाने।।
सहस्त्रसार से उपर कई लोका । त्रिकुटी शून्य महाशून्य भ्रमर लोका ।
सतअलख अगम अकह लोका ।उपर सबसे राधास्वामी लोका।। 
मानवता को फिर से जगाने । अपने कूल की लाज बचाने ।
दयाल देश से आए स्वामी । जन जन के हैं अन्तर्यामी।।
।।बोल हरि ।।
हुई खबर सब ओर देवखडे कर जोड ।
चहुं दिशा कंपित हुई कांप उठे सब लोक।।
देव सभी चल पडे बल अपना सम्भाल ।
पथ लगे बुहारने रहे वे बाट वे निहार।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
मां मनमोहिनी अति सौम्यमै  । बाल्यपन से थी तेजोमयी ।
मात पिता से हठ वे करती । श्रीकृष्ण का मंत्र वे चाहतीं ।।
रात दिन यही लगन लगाती । कब आएं श्री कृष्ण मुरारी।
मां राधे तुम दर्शन दे दो । मुझे श्री कृष्ण की दीक्षा दे दो ।।
राधे राधे गोबिन्द मिलादे । मुझे महामंत्र की भिक्षा देदे ।
विकल होकर प्रार्थना करती । मन ही मन उपासना करती।।
पिता समझाने लगे कन्या को । बाल्यपन में न मिला किसी को।
 सुध बुध भूली इक रात में । विहल हो उठी मूर्ति के पास में।।
मात पिता फिर फिर समझाते । रात में ठाकुर शयन हैं करते।
रात्रि में जिस दिन वे जगेंगे । स्वयं तुम्हें वे मन्त्र देवेंगे।।
बाट जोहती रही वो कन्या । मन्त्र देवेगा कब कृष्ण कन्हैया।
छ वर्ष की व्याकूल हो गई । बालपना का खेल भूल गई।।
।।बोल हरि ।।
हर क्षण हर घडी वो कहती सुबह और शाम ।
रात रात वो जागती श्री कृष्ण विग्रह के पास।
अर्धरात्रि में एक दिन हुई अचम्भित बात ।
प्रभू मूर्ति चैतन्य हुई प्रगटी रश्मि अपार।।
देखती रही मनमोहिनी लगी टकटकी लगाय ।
उज्जवल ज्योतिर्मय छवि दिव्य प्रकाश झलकाय।।
प्रगट हुए इक संत पुरूष प्रकाश पुंज के साथ ।
 मनु चाहिए क्या तुझे मूर्ति से हो रहा नाद।।
शुद्ध बुद्ध भूली बालिका चरणों को चित्त लगाय ।
मंत्र मंत्र मुझे चाहिए बही अंसुवन की धार।।
उदात्त धीर स्पष्ट स्वर गुंज उठा इक नाद।
झंकृत हो रहा तन मन मिला अनामि नाम।।
राधायुक्त चतुष्ट्य मंत्र प्राप्त किया सस्वर।
धन्य वो पावन घडी धन्य वो परम अक्षर।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
मात पिता सुनी सब बातां । विहल  हुए मन नहीं अघाता।
कन्या दिन दिन बढती जाए । स्वप्न दृष्ट मंत्र रटती जाए।।
कछुक समय बीते एहीं भांति । रहती मगन कन्या दिन राति।
मात पिता दोनों बतलावे । मिले सुपात्र विवाह हो जावे।।
शांडिल्य गोत्र पबना के वासी । ईश्वरचन्द्र गृहस्थ सन्यासी ।
दानवीर पुत्र शिवचन्द्र विशेषा । आदर्श नेमी सरल लवलेषा।।
दृढ नियम अतीथि सत्कारा । देखें सबमें प्रभू को प्यारा।
प्रत्यक्ष की पूजा पहले करना । हरदम उनका ऐसा कहना।।
जो जन आते उनके निवासा । पाते  शांति मिटता कलेषा।।
दानवीर सत्भाषी महेषा । रहते सहज भाव निज देशा।।
शुभ समय शुभ लगन जब आया । मनु को पत्नीरूप में पाया ।
लीला कहीं कुछ और हो रही । प्रकृति अपना खेल रच रही।।
।।बोल हरि ।।
 
प्रभू की रीत निराली है न्यारे उनके काम ।
मां बनी मनमोहिनी पिता शिवचन्द्र महान् ।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
हाथों से निज सेवा करतीं । अविरल मंत्र निशदिन जपती ।
जान सकी न प्रभू की रीती । धरणी पर गुरू स्वप्न की मूर्ति ।।
एक दिवस कुछ ऐसा आया । मनु ने गुरू को सन्मुख पाया।
पुलकित नैन अश्रु भर आए । स्वप्नदृष्ट गुरू सन्मुख पाए।।
कह न सकी कुछ मुख से वाणी । अपलक देखती रही वो रानी ।
आसन से बोली गुरू मूर्ति । 'मां सुशीला!' आवाज ये गुंजी ।।
मां तेरे घर मालिक आएं। धरती का भार स्वय् उठाएं ।
विस्मित हुई सुन गुरू की वाणी । समझ सकी ना कछु भी सयानी.
बहुत पसारा दुर्जनों का । नहीं किनारा सद्जनों का।।
खल बल शक्ति से घिर आते । वधू कन्या पर वार वे करते ।।
दल बल हो अत्याचार वे करते । न्याय प्रिय हो न्याय वे करते ।
सहमे थे सब सज्जन लोगा । खडे पुकार बहुत मन योगा ।।
।।बोल हरि ।।
जाति भेद प्रबल था आहत था सद् समाज।
विकल हो रहे लोग सब सहमे गृह के माय।।
।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
अन्तर्द्रष्टा गुरूवर ग्यानी। त्रिकाल के वे सुविज्ञानी।
गुरू की बात मनु मन माहीं।बैठ गई कछु सुध बुध नाहीं।।
उदार ह्दया तेजस्वनी बाला।नाम में लीन हुई सब काला।
सतत जाप गुरू मंत्र का करती।मधूसूदन के आसरे रहती।।
आर्त स्वर में अंतःस्तल से।हर घडी जपती हर पल क्षण में।
आर्त हो जब  भक्त पुकारे।निराकार प्रभू शिशु बन आए।।
  जब प्रभु  आये मत गर्भ में . प्रगटी आभा  माँ के तन में
     दिन दिन बढती जाये . स्फूर्ति माँ बनी ज्यों विशिष्ट विभूति।।
साधू समाज घिर घिरकर आते।अनजाने रहस्यों को बताते।
माता तू है बडी बडभागन। दिव्य किलकारी गुंजे तेरे आंगण।।
नभ में देव गण करें प्रार्थना।पूरी होगी सकल कामना।।
सब मिलकर गुणगान हैं करते। प्रभु आने की बाट हैं जोहते।।
।।बोल हरि ।।
धरती मन मन ध्या रही नमन करें सब लोक।
माता सरस्वती वन्दना करे खडे देव कर जोड।।
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
                                वायु मन्द मन्द यूं बहती। स्निग्ध सुशीतल मन को करती।                                    
                               पक्षी नीड पर कलरव करते।हरि आवन की घोषणा करते।।                    
                                 बाजी चर्हुंलोक शंख शहनाई।देवी देवता दुदुंभी बजाई।                                       
                      जहं तहं मगंल गान हो रहे। भांत भांत के पुष्प खिल रहे।।                          
                              हरिबोल के  शब्द गुंज रहे।स्नेह से मन सब विहल  हो रहे।                                     
    धरती नभ जल हरषित होते।बहु बिध सब जन पूजा करते।।                
                  हर्षित हो रहे जग लोका। नाम के नामी आए लोका।                                
ऋषि महिर्षि निज आसन माहीं।हरि आए अब चिंता नाहीं।।         
गृह प्रांगण हुए आलोकित।सबके ह्दय हो रहे पुलकित।                   
         भादो महीना बहुत ही पावन।प्रभात की बेला अति मन भावन।।                       
                ताल नौमी शुक्रवार विशेषा। आए पालक जग के महेशा।                         
प्रातः  सात  पांच  मीनट पर। अवतीर्ण  हुए  प्रभू इस धरणी पर।।

।।बोल हरि ।।
सारा लोक आलोक हुआ आए कूल के नाथ।
धरणी का भार उतारने शक्ति को ले साथ।।
विप्रों ने किया नामकरण नाम हुआ अनुकूल।
श्री श्री ठाकुर नाम से हुए जगत के पूज्य।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

सर्व शरीर सुगठित ऐसा।तेज तपोबल विद्युत जैसा।
गौर वदन तपे स्वर्ण की भांति।लम्बी भुजाएं देती विश्रांति ।।
कमल नयन मुख उनके सोहे।सुन्दर ऐसे मन को मोहे।
अद्भूत बालक आया गृह माहीं।रूण झुण पैजनी बाजी पग माहीं।।
कभी धरणी पे बैठे झूला। दिन दिन बढे शिशु अनुकूला।
मोहित मात मन माहीं होती। झांकी पे न्योछावर होती ।।
हर दिन लीला होती बहु भांति।माता भी कुछ समझ न पाती।
घुटनों के बल चल रहे ऐसे। जगपालक बालक के जैसे।।
कोमल चरण भूमि पे धरते।दसों दीशाएं जयजय  करते।
परिजन सबजन नयन भर तकते।शैशवलीला ह्दय में भरते।।
आसपास के लोग सब आते।बाल लीला को देख अघाते।
कोई कहे नटखट बालक है।कोई कहे ये कूल मालिक है।।        
     
।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

मात मनमोहनी बहुत उदारा।अनुशासन उन्हें सबसे प्यारा।
पुत्र है अनुपम कहते लोगा।ईश्वरीय शक्ति सब भांति जोगा।।
अन्नप्रासन का अवसर आया।बहुत प्रकार मोद मनाया।
सजी यात्रा बहुत प्रकारा।बालक माहीं लगा अति प्यारा।।
मंगल गान बहुं भांति हो रहा। अन्नप्रासन का विधान हो रहा।
रूप माधुरी बालक मुख चमके।विद्युत भांति सब अंग अंग दमके।।
झलक पाने होड सब करते।मन में प्रेम विशेष हैं धरते।
बारम्बार लोग सब निहारें।ह्दय मांही कुछ और बुहारे।।
नाना प्रकार उत्पात वे करते। नित पडोसी उलाहना देते।
माता जबजब करती रोषा।पडोसी कहते अनुकूल के नहीं दोषा।।
दिव्य लीला करते दिन राति।अनुपल चरित्र दिव्य बहुं भांति।
सबके मन को मोहते ऐसे।गगन में चंदा चकोर को जैसे।।        
 
।।बोल हरि ।।
कभी बाग उजाडते कभी खेलते पक्षी के साथ।
मन्दिर में जा लेपते चंदन अपने माथ।।
वाणी बोलते जो जिसे सच्ची होती हर भांत।
सब विस्मित रह जाते सुन बालक की बात।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे।
अहं नमामि ! अहं नमामि !   अहं नमामि ! अहं नमामि!


।।बोल हरि ।।
।। जन्मकथा प्रसंग सम्पूर्णम्।।




“रा”
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे।
अहं नमामि!अहं नमामि! अहं नमामि ! अहं नमामि !


नाम महिमा 

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

ठाकुर हमारे धरणी पर आए। आर्त दुखी जन शांति पाए।
शांति के दाता परम विधाता।नाम सुमिरकर सतपथ पाता।।
अन्तर के सब मर्म वे जानें।अन्तर के सुप्त भाव जगावें।
अन्तर्मन की शक्ति बढावें।अन्तर्मन में नाम जगावें।।
नाम के साथ आए नामी । जन जन के हंै वो हित कामी ।
सबके स्वामी अन्तर्यामी । नमामी नमामी नमामी नमामी।।
नाम नाम की धून जगाओ।रात दिवस मन में तुम गाओ।
अन्दर नाम बाहर भी नाम। नाम नाम बस नाम ही नाम।।
नाम नाम में मन को लगालो।जीवन अपना दिव्य बनालो।
धर्म की महिमा भिन्न बताते । निज सुख का सब भेद समझाते।।
अन्तर में सतनाम जगाते । नाम की धून में सबको रमाते ।
जप तप दान व्रत से निशदिन।काया छिजती दिन दिन क्षिण क्षिन।।
अन्तःकरण से तुम्हें जो पुकारे । आश्रय होकर रहे तुम्हारे ।।
सतनाम है कलीकाल की शक्ति।इसी नाम से आए भक्ति।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

ठाकुर की महिमा है न्यारी।इष्टवृति से करें रखवारी।।
इष्ट को जानो सुन ऐ प्राणी।इष्ट बिना नहीं कुछ ऐ गामी।।
इष्ट कौन है तुम ये जानो।इष्ट से रिश्ता अभी पहचानो।
इष्ट से तेरी है जयकार।इष्ट बिन सुना संसार।।
इष्ट से रिश्ता जोडें कैसे।इष्ट बिन बन्धन टूटे कैसे।
इष्ट से जुडकर चल ओ प्राणी।दुनिया है ये आनी जानी।।

।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

ब्रह्या बिष्णू और महेशा।संग रहते ठाकुर के हमेशा।
जीवंत इष्ट ठाकुर को जानो।परम तत्व का भेद तुम मानो।।
धर्म क्या है जानो तुम बन्दे।कर्म की गति पहचानो बन्दे।
यजन याजन करों तुम निशदिन । इष्टभृति तुम करो निश दिन।।
शिव ठाकुर में भेद नहीं है।जहां ठाकुर हैं वेद वहीं है।
वेद वाक्य है उनकी वाणी।दया मिले तर जाए प्राणी।।
ठाकुर को जो शिव जी माने।शिव ठाकुर में भेद न जाने।
उन भक्तों की बात निराली।अपने बल पर करे रखवाली।।
परम पुरूष को जो जन जाने । ईश्वर की लीला  पहचाने ।
सत् आचार पर चल रे बन्दे । अपनी सूरत को धरले बन्दे।। 

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

धर्म का मर्म कुछ ये समझाते । अस्तिवृद्धि की बात बताते।
अस्तित्व की रक्षा होती कैसे।मनमुखी मारग पाए कैसे।।
ठाकुर की है बात निराली। भक्तों की करते रखवाली ।
जो जन जाने उनकी माया । सरल रीति से वो बच पाया ।।
आत्म बोध जन जन में जगाते । निज सूरत से आप मिलाते।
खंडित उनके दोष हैं होते। शरण में उनके जो हैं रहते।।
आचार विचार का मर्म बताते । सत पथ की है राह दिखाते।।
वास करे भक्तन के उर में । अभयदान देते पल क्षीण में ।।
सब देवन है तिहारे गामी । सकल जगत के आप हो स्वामी ।
अभीष्ट मनोरथ सिद्ध कर देते । क्षण में मोह ममता हर लेते ।।
प्रेम ही जीवन प्रेम ही पूजा।प्रेम से बढकर काज ना दूजा।
प्रेम ही भक्ति प्रेम ही शक्ति । प्रेम ही सार है प्रेम ही मुक्ति।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

परम दयाल वे कहलाते।परम मार्ग है वो दिखलाते।
परम प्रभू परमेश्वर हैं वो।विश्वेश्वर जगदीश्वर हैं वो।
आत्म बुद्धि आत्म ज्ञान का।रास्ता ऐसा निज कल्याण का।
स्वधर्म को जानले प्राणी।आया बताने जग का स्वामी।।
सत को जानो सत को मानो।अन्तर के ठाकुर को जगालो।
मन अपना निर्मल होता है।चित अपना शीतल होता है ।।
चित में जागे जब वो मुरारी।भेद बुद्धि मिट जाती सारी।
सारा जग अपना सा लगता है। आत्म ज्ञान स्वयं जगता है।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

निज दुर्बलता है शत्रु समान।शक्ति निष्फल होती तमाम।
अपनी शक्ति आप बचाओ। उंचे कर्म में खुद को लगाओ।।
ठाकुर तो हैं तुम्हरे पासा।नाम प्रभाव से आएं पासा।
भ्रम से तुमको बचना होगा। अपने विवेक पर चलना होगा।।
कपट भाव से बचना होगा।सत के पथ पर चलना होगा।
देने की प्रकृति जगाओ। पाने का सद्मार्ग तुम पाओ।।
पाने से पहले देना होगा।प्रत्याशा बिन जीना होगा।
जीने का मार्ग बहुत ही उंचा।द्वन्द बुद्धि से बचो हमेशा।।
औरों के जीवन को बचाओ।धर्म का उंचा मार्ग तुम पाओ।
सबके अन्दर इष्ट है तेरा।देखे बिन कभी हो न सवेरा।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

सम भाव से जग चलता है।भाव बिगडे तब क्या रहता है।
इष्टवृति समता देवेगी।समता ही तो विषमता हरेगी।।
पडे जो प्राणी विषम राह में।इष्टवृति जगाओ चाह में।
इष्टवृति से ईष्ट जगेगा।ईष्ट जगे तो क्या न मिलेगा।।
ईष्टवृति बिन पूजा कैसी।ईष्टवृति महाव्रत के जैसी।
ईष्टवृति तुम करलो प्राणी। दुनिया में तेरी रहे कहानी।।
जीवन का पथ बहुत कठिन है।कौन जाने कब रात और दिन है।
जीवन ये फिर कभी न मिलेगा। ईष्टवृति सब बिघ्न हरेगा।।
पंच विधान पर चलना होगा। दृढता का भाव धरना होगा।
इष्टवृति आर्यों की नीति। यही तो है जीवन की युक्ति।।
नम्रता मधुरता का भाव बनेगा। जीवन में अनुपम शौर्य जगेगा।
ठाकुर आए सबको बचाने। बचने बढने का मार्ग बताने।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

पृथ्वी का भार उतरे ना तब तक।निज कर्म पर न चले कोई जब तक।
कर्म क्या है जानो पहले।अपने वैशिष्ट्य को जानो पहले।।
वैशिष्ट्य जिसका जैसा जगेगा।चलन उसका वैसा उभरेगा।
वैशिष्ट्य पाली वे कहलाते।सबके अपने वैशिष्ट जगाते।।
निश दिन जीवन तेरा जैसा। कर्म प्रभाव होगा ही वैसा।
निष्ठा उनके प्रति आज जगालो।अपने कर्म की गति अपनालो।।
निज निष्ठा बिन कर्म ही कैसा।कर्म बिना धर्म निभे ना वैसा।
कर्म से अपना धर्म टिका है। धर्म से अपना जग ये बचा है।।
मात पिता संग रहते हो कैसे।भाव उनके प्रति संजोते कैसे।
मात पिता है ईष्ट समान।अन्तर्मन से करो सम्मान।।
मां के प्रति श्रद्धा जगाओ।जीवन बगिया तुम महकाओ।
पिता के प्रति जगाओ टान।धरती पर रहेगी हरदम शान।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

  सफलता की बेदी सदाचार है।इससे बढता सत आचार है।
सत आचार से मन बस होवे।नही तो चकाचौंध में खोवे।।
सत आचार से सत बढता है।सत से स्व तेज बढता है।
जीवन में जब तेज न होवे।मानुष जनम वृथा ही खोवे।।
मानुष जनम सफल हो तेरा।ठाकुर चरणों में बसाओ डेरा।
ठाकुर हैं सब जग के स्वामी।करो प्रणाम चढाओ प्रणामी।।
टका पराया मानुष अपना। यह तो है ठाकुर का कहना।
जितना सको मनुज को पाओ। जनम जनम की साध तुम पाओ।।
मनुष्य जीवन कितना अनमोल। इसका लगाओ कोई न मोल।
मनुष्य बचेगा धर्म बचेगा। नहीं तो जीवन कहां धरेगा।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

पत्नी की स्वामी में भक्ति हो जैसी।संतान उनको मिलती है वैसी।
सुंसतान को पाना होगा।संस्कार उनका बचाना होगा।।
सुसंतान को धरा पर लाओ।जग को सुन्दर तुमही बनाओ।
उंचे विचार उंचा आचार।घर में जगाओ सदाचार।।
तप कर सूरज पूजा जाता।संत समाज भी तप कर आता।
तप बिन कोई बात न बनती।तप से सारी बिगडी है बनती।।
अपने मन को ऐसा बनाओ। औरों की पीडा उसमें बसाओ।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

और कहीं कुछ सार नहीं है।उनसे कोई पार नहीं है।
जान सके कोई भेद न उनका। चारों ओर प्रकाश है उनका।।
जीवन अपना पार तुम करलो।ठाकुर चरणों का ध्यान तुम धरलो।
श्रुति को जगाने हरि ही आए।हरि की गति कोउ जान न पाए।।
हरि पुकारे द्वार तुम्हारे।श्रुति जगालो हरि के दुलारे।
कारण पुरूष हैं वे जग पालक। हैं सतचालक हैं सतचालक।। 
करो समर्पित दुख जीवन के।स्वीकार करेंगे हर्षित होके।
राह पर तेरे संग चलेंगे।बिघ्न बाधा सब वे हर लेंगे।।
मात स्वरूपिणी उनकी मूर्ति।जगालो मन में प्रभू की ज्योति।
मात मात जब मन ये पुकारे।ठाकुर आएं द्वार तुम्हारे।।
ठाकुर युग के प्राण आधारे।सुमिरण करलो पाओ पारे।
ठाकुर ठाकुर मन जब गाए।ठाकुर सांस की डोरी चलाए।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।

ब्रह्यानन्द स्वरूप तिहारा।परम पिता जग पालन हारा।
सर्वव्यापक प्रभू पूरणकामा। स्वीकार करो मेरा प्रणामा।।
त्रिविध ताप से व्याकुल लोगा।पथ बिमुख भ्रान्ति सब जोगा।
चित्त को भ्रमित न होने देते।सहज मार्ग में स्थिर करते।।
हर घडी निज रूप में रहते।श्रुति में जगे श्रुति में वे रमते।
नाम से सारे विपद टल जाए।स्मरण से सारी बात बन जाए।।
ध्यान ठाकुर का हरदम धरो तुम। निज तत्व को जागृत करो तुम।
ध्यान ठाकुर का करो तुम ऐसे। निज तत्व का आभास हो जैसे।।
अन्तर का सब ज्ञान जगालो। अपने स्वत्रूप को स्वयं सम्भालो।
अन्धकार में भटक रहे प्राणी।अज्ञान के दर्प में डूबे अज्ञानी।।
जीवन अरण्य में पार न पाते।ठाकुर उनको किनारे लाते।।
उनकी भक्ति करो सब भांति।मिले विश्रांति पाओ शांति।।

।।बोल हरि।।
कलयुग केवल एक आधारा।ठाकुर केवल नाम तुम्हारा।
कारण पुरूष पालक रक्षक प्रभू पुरूषोत्तम चरणार्विन्दे।
अहं नमामि ! अहं नमामि !   अहं नमामि ! अहं नमामि !
।।बोल हरि ।।
…………………
…………………

विनति


प्रातः कालीन विनति
राधा स्वामी नाम जो गावे सोई तरे।
कल कलेश सब नाश।सुख पावे सब दुःख टरे।।1।।
ऐसा नाम अपार कोई भेद न जानई।
जो जाने सो पार।बहुरि न जग में जनमई।।2।।
राधा स्वामी गायकर।जनम सफल करले।
यही नाम निज नाम है।मन अपने धरले।।3।।
बैठक स्वामी अद्भूति।राधा निरख निहार।
और न कोई लख सके शोभा अगम अपार।।4।।
गुप्त रूप जहां धारिया।राधा स्वामी नाम।
बिना मेहर नहीं पावई।जहां कोई विश्राम।।5।।
करूं बन्दगी राधास्वामी आगे।
बिन परताप जीव बहु जागे।।6।।
बारम्बार करूं परनाम।
सत्गुरू पदम धाम सतनाम।।7।।
आदि अनादि युगादि अनाम।
संत स्वरूप छोड निज धाम।।8।।
आये भौजल पार लगाई।
हमसे जीवन लिया चढाई।।9।।
शब्द दृढाया सूरत बताई।
करम भरम से लिया बचाई।।10।।
कोटि कोटि करूं वन्दना अरब खरब दंडौत।
राधास्वामी मिल गये खुला भक्ति का श्रोत।।11।।
भक्ति सुनाई सबसे न्यारी।
वेद कतेब न ताहि बिचारी।।12।।
सत्तपुरूष चौथे घर पद वासा।
संतन का वहां सदा बिलासा।।13।।
सो घर दरसाया गुरू पूरे।
बीन बजे वहां अचरज तुरे।।14।।
आगे अलख पुरूष दरबारा।
देखा जाय सूरत से सारा।।15।।
तिस पर अगम लोक एक न्यारा।
संत सुरत कोई करत विहारा।।16।।
तहां से दरसे अटल अटारी।
अद्भूत राधा स्वामी महल संवारी।।17।।
सुरत हुई अतिकर मगनानी
पुरूष अनामी जाय समानी।।18।।

सांन्ध्यकालीन विनति
बार बार करूं विनती।राधास्वामी आगे।
डया करो दाता मेरे।चित चरणन लागे।।1।।
जन्म जन्म रही भूल में।नहीं पाया भेदा।
काल करम के जाल में।रहि भोगत खेदा।।2।।
जगत जीव भरमत फिरें।नित चारो खानी।
ज्ञानी जोगी पिल रहे।सब मन की घानी।।3।।
भाग्य जग मेरा आदिका।मिले सत्गुरू आई।
राधास्वामी धाम का। मोहि भेद जनाई।।4।।
उंचा से उंचा देश है।वह अधर ठिकानी।
बिना संत पावे नहीं।श्रुत शब्द निशानी।।5।।
राधास्वामी नाम की।मोहिं महिमा सुनाई।
विरह अनुराग जगाय के।घर पहुंचुं भाई।।6।।
साध संग कर सार रस।मैंने पिया अघाई।
प्रेम लगा गुरू चरण में।मन शांति न आई।।7।।
तडप उठे बेकल रहुं।कैसे पिया घर जाई।
दर्शन रस नित नित लहूं।गहे मन थिरताई।।8।।
सुरत चढे आकाश में।करे शब्द बिलासा।
धाम धाम निरखत चले।पावे निज घर वासा।।9।।
यह आशा मेरे मन बसे।रहे चित उदासा।
विनय सुनो किरपा करो।दीजे चरण निवासा।।10।।
तुम बिन कोई समरथ नहीं जासे मांगू दाना।
प्रेम धार किरपा करो।खोलो अमृत खाना।।11।।
दीन दयाल दया करो।मेरे समरथ  स्वामी।
शुकर करूं गावत रहुं।नित राधास्वामी।।12।।
प्रातःसान्ध्यकालीन विनति
बार बार कर जोड कर।सविनय करूं पुकार।।
साध संग मोहि देव नित।परम गुरू दातार।।1।।
कृपा सिंधु समरथ पुरूष।आदि अनादि अपार।
राधास्वामी परम पितु।मैं तुम सदा अधार।।2।।
बार बार बल जाऊं।तन मन वारूं चरण पर।।
क्या मुखले मैं गाऊं।मेहर करी जस कृपा कर।।3।।
धन्य धन्य गुरूदेव।दयासिंधु पूरण धनी।।
नित करूं तुम सेव।अचल भक्ति मोहे देव प्रभू।।4।।
दीन अधीन अनाथ।हाथ गहा तुम आनकर।
अब राखो नित साथ।दीन दयाल कृपानिधि।।5।।
काम क्रोध मद लोभ।सब बिधि अवगुण हार मैं।।
प्रभु राखो मेरी लाज।तुम द्वारे अब मैं पडा।।6।।
राधास्वामी गुरू समरथ।तुम बिन और न दुसरा।।
अब करो दया प्रत्यक्ष।तुम दर एति विलंब क्यों।।7।।
दया करो मेरे सांईयां। देवो प्रेम की दात।।
दुख सुख कुछ व्यापे नहीं।छुटे सब उत्पात।।8।।

सद्गुरू वन्दना
गुरूब्र्रह्मा गुरुरबिष्णु गुरुर्देवो  महेश्वरः।
गुरूरेव परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
अखन्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
स्थावरंजंगमं व्याप्तं येन कृत्स्नं चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
चिद्रुपेण परिव्याप्तं त्रेलोक्यं सचराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
न गुरोरधिकं तत्वं न गुरोरधिकमं तपः।
तत्वज्ञानात परं नास्ति तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।
मन्नाथः श्री जगन्नाथो मद्गुरू श्री जगद्गुरू।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।
गुरूरादिरनादिश्च गुरूः परमदैवतम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूत्तिम्।
द्वन्द्वातीतमं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।।
एकनित्यं विमलमचलमं सर्वधीसाक्षीभूतम्।
भावातीतमं त्रिगुणरहितं सत्गुरूं त्वां नमामि।।
कीर्तन
जय राधे राधे कृष्ण कृष्ण
गोबिन्द गोबिन्द बोलो रे
राधे गोबिन्द गोबिन्द गोबिन्द गोबिन्द
गोबिन्द बोलो सदा डाको रे।
छाडो रे मन कपट चातुरि
बदोने बोलो हरि हरि
हरि नाम परमब्रह्म जीवेर मूल धर्म
अधर्म कुकर्म छाडो रे।
छाडो रे मन भवेरो आशा
अजपा नामे करो रे नेशा
राधे गोबिन्द नामटी बदोने लइए
नयन नीरे सदा भासो रे।र्
   - श्री श्री ठाकुर

पावन संस्कृति

आज हमने अपनी पावन संस्कृति का आधार छोड़कर मनमाना आचरण आरम्भ किया है । शास्त्रों के  मनन चिन्तन को छोडकर उसके पाठ पूजन पर ही विशेष ध्यान दिया जा रहा है.  जिसके कारण शास्त्रों की बाहरी पूजा तो बढ गई है लेकिन स्वधर्म के प्रति अनुशासन हीनता की प्रवृति ही पनप रही है।
सदाचार की अवहेलना तो मानो आधुनिकता का द्योतक हो गया है। आधुनिकता के लोभी मनुष्य अपनी बुद्धि पर किसी का नियन्त्रण स्वीकार नहीं करना चाहते।
वर्तमान शिक्षा पद्धति ने हमारे गौरवपूर्ण संस्कृति को आहत किया है।इसके तहत ही तो खाओ पीओ मौज करो का सिद्धान्त लोग तेजी से अपना रहे हैं। समाज में स्वच्छंद प्रेम. प्रेम विवाह. तलाक इत्यादि बातें आम हो गई है।
युग द्रष्टा श्री श्री ठाकुर ने परिवार समाज और राष्ट्र के मंगल के लिए अपनी संस्कृति की विशिष्टता पर जोड देकर कहा है :
                                              अमृत की संतति तू. अमृत तेरी जीवन धारा।
                                             मरण भजके मरण खोज के. होगा क्या सर्वहारा                                                                                                                अनुश्रुति खण्र्ड भाग : 2
सही मायने में देखा जाए तो श्री श्री ठाकुर द्वारा दिखाया गया सिद्धान्त ही जीवन की सार्थकता की प्राप्ति का एक मात्र मंगलमय पथ है।जिस पर चलकर जीवन कोे हर दृष्टिकोण से पूर्ण किया जा सकता है।आज क्या हो रहा है : नारी उत्पीडन. दहेज प्रथा.  गरीब व पिछडे वर्ग पर अत्याचार.  नीहित स्वार्थ. बच्चों तक से किए जा रहे अमानवीय कूकर्म के बीच आर्यों द्वारा निर्धारित महान् संस्कृति और धर्म गन्थों की मर्यादा कहॉं रह गई हैं।
आज बाहरी उन्नति हो चाहे पर आत्म उन्नति खतरे में पड गई है।

राष्ट्र के  विधि विधायकों को सावधान करते हुए श्री श्री ठाकुर ने बहुत पहले सावधान किया र्था “ऋषियों द्वारा स्थापित नियमों को नहीं मानने से राष्ट्र के समक्ष इतनी असामाण्जस्यताएं आएंगी कि उन्हें  दूर करने के लिए नित नए कानून बनाने होंगे उसके बाद भी व्यक्ति और समाज को एक सूत्र में बांध पाना कठिन होगा।”
देखा जाए तो आज देश के नागरिकों के साथ ऐसा ही हो रहा है।

आज के समय में जब हर कोई मनुष्य पाश्चात्य संस्कृति के आकर्षण में बंध रहा है तो बहुत आवश्यक हो गया है कि हम अपना  आत्म निरक्षण करें।श्री श्री ठाकुर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है : प्राचीन काल में ऋषि मुनि ही समाज के  नियन्ता होते थे।वे लोग इस बात पर बराबर ध्यान रखते थे कि मनुष्य कहीं से प्रवृति परायण न हो जाए।शिक्षा दीक्षा समाज व्यवस्था शादी विवाह इत्यादि का ढांचा वे ही तैयार करते थे।समाज में जब तक ऋषि महर्षियों का अनुशासन शक्तिशाली रहा तब तक आम आदमी कम विभ्रान्त हुआ। आधुनिकता  नाम पर हीन मान्यता वैशिष्ट्यहीनता उच्छृंखलता मतवाद को प्रश्रय देकर हमारे यहॉं के तथाकथित शिक्षित व्यक्ति जितना कुसंस्कार पन हो रहे हैं उतने हमारे देश के अनपढ व्यक्ति भी नहीं हुए।”  
     
श्री श्री ठाकुर ने कभी भी रूढीवादी मानसिकता की नहीं की. उन्होंने सदैव मूल सुधार की बात कही।न उन्होंने कभी पाश्चात्य शिक्षा को दोषी ठहराया दोषी ठहराया बल्कि उन्होंने दोषी ठहराया उस शिक्षा की बदहजमी को।

जब तक मनुष्य के सामने उसके अपने आचरण की सीमा रेखा नहीं होगी. तबतक उसके लिए अपने जीवन को सही पथ पर चला पाना कठिन होगा।अतः आज की परिस्थिति में सबसे अधिक आवश्यकता चरित्रवान व्यक्तियों की है जो आदर्श में युक्त हों             

एक निष्ठ हों तथा मर्यादाशील हों तभी परिवार समाज का मंगल हो सकता है।

समाज निर्माण

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से भिन्न इसका अस्तित्व एक दिन के लिए भी नहीं टिक सकता।समाज निर्माण के आदिकाल में ही यह ईश्वरीय आदेश वेदवाणी के रूप में प्रगट हुआ “सवै नैवारे ते अस्माद एकाकी न रमते।” साथ ही वेद ने मनुष्य को आदेश दिया  “संगच्छध्वं संवध्वं संबो मनांसि जानतं” अर्थात् हे मनुष्यों. तुम सभी एक साथ चलो एक साथ आलोचना करो।तुम्हारा मन उत्तम संस्कारों से युक्त हो।

यह सत्य है कि समाज की आधारशिला व्यक्ति ही है कारण व्यक्ति के सहयोगपूर्ण संगठन से ही समाज का निर्माण होता है और मानव समाज के जनपदीय राजनीतिक संगठन को राष्ट्र कहते हैं।देखा जाए तो समाज की उन्नति और राष्ट्र की प्रगति मूलतः व्यक्तित्व ही है।दंपति एवं परिवार ही समाज संगठन की प्रारम्भिक इकाईयॉं हैं।जिनके द्वारा व्यक्ति परिवार के माध्यम से समाज से युक्त होकर राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
श्री श्री ठाकुर के दृष्टि में समाज संगठन जीवन विकास की चरम सीमा पर अवस्थित है।जहॉं प्रत्येक मनुष्य को यह सुविधा प्राप्त है कि वह जीवन भर सांसारिक सुखों का त्यागपूर्ण उपभोग करता हुआ जीवन के चरम लक्ष्य महाचेतन के समुत्थान तक पहुँच जाय।

मनुष्य शब्द   की उत्पति हुई है “मनुट्टष्य” अर्थात् मनु का पुत्र और “मन्ट्टउ” मनु के अनुसार मनु ब्रह्या के पुत्र हैं।बह्या शब्द की उत्पति वृह् धातु से हुई है जिसका अर्थ है विस्तार के पथ पर अभिगमन।इस कारण जो विस्तार के पथ पर विचरण करता है अथवा विश्व सेवा में आत्म नियोग कर समष्टि के मंगल के लिए अग्रसर होता है उसीका जीवन धन्य है।

श्री रामकृष्ण ठाकुर ने कहा था “प्रकृत मनुष्य वही है जो मन का संचालन चतुरता पूर्वक करता है।” शास्त्रकारों ने आत्मा की चंचल अवस्था को मन की संज्ञा दी है।मनुष्य को अपने मूल कर्तव्य से च्युत कर अधोमुख में ले जाने वाले जो मोह सम्बन्धी षट्रिपु हैं. मन उनकी क्रीड़ा भूमि है।

जब मनुष्य प्रकृति विरूद्ध विधान पर परिचालित होता है. तभी वह अपने वास्तविक उद्धेश्य से भटक जाता है।अतः आवश्यकता है मनुष्य शरीर के अन्दर मनुष्य निर्माण की।
आर्य ऋषि मनु महाराज ने इस तथ्य को समझा था इस लिए उन्होंने सामाजिक व्यवस्था के निमित्त चार आश्रम बनाए और पंच महायज्ञ का विधान रखा।जात कर्म से लेकर अंत्येष्टि तक के संस्कार जीवन को नियंित्रत करने के निमित्त ऋषियज्ञ. देवयज्ञ. भूतयज्ञ. पितृयज्ञ तथा नृयज्ञ ये पांच यज्ञ दैनन्दिन शरीर आत्मा और मन को वृद्धि के पथ पर अग्रसर करने के निमित्त आवश्यक समझे गए।

किन्तु कालक्रमानुसार आर्य भूमि में ही महान् आर्य ऋषियों का मानव के अस्ति वृद्धि के निमित्त बनाया गया मंगलकारी विधान शिथिल पड़ गया।संस्कार की मूल परिभाषा से विभ्रान्त मनुष्य अस्ति वृद्धि के मूल आधार को त्याग कर. मन इन्द्रिय का दास बन गया।यही कारण है कि व्यक्तिगत जीवन से लेकर जातीय जीवन तक शक्तिहीन निकम्मा बनता जा रहा है।संसार की शान्ति विनष्ट हो गई है।अल्पायु होकर मनुष्य अभावों की पूर्ति के निमित्त शान्ति की तलास में दर दर भटक रहा हैे।जब तक मनुष्य शारीरिक़ मानसिक़ आत्मिक उत्कर्ष की साधना में अग्रसर नहीं होताऌ उसकी भेद बुद्धि नष्ट नहीं होती और जब तक भेद बुद्धि स्थिर रहती है. स्वभावगत वृतियां दुषित होकर मनुष्य को अधोमार्ग पर ले जाती रहती है और इस तरह ऋषियों की धारा मनोमुखी आचरण द्वारा पीढ़ि दर पीढ़ि दुषित होती जाती है। आज चारों ओर जातीय जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर करने की चर्चा चल रही है।त्रस्त मानव के लिए शान्ति की चर्चा जोरों से हो रही है किन्तु जातीय जीवन के मूल उत्स व्यक्ति निर्माण की ओर किसी का ध्यान नहीं है।जब तक जातीय जीवन को सुख शान्तिमय बनाने के निमित्त व्यक्ति के निर्माण की चेष्टा नहीं की जाती. तब तक जाति की कल्याण कामना मृगमरीचिका तुल्य सिद्ध होती रहेगी।अतः बहुत आवश्यक है. समष्टि के मंगल के लिए ऋषियों द्वारा दिखाए विधान को जीवन में उतारना।

दिन रात अनिष्ट की आराधना में रत कल्याण पथ को खोज रहे प्राणियों की उपहास जनक स्थिति पर दृष्टा ह्दय श्री श्री ठाकुर समझा कि आचरण सिद्ध आचार्य के अभाव में किस प्रकार मनुष्य मृत्यु मार्ग का पथिक बनकर अमरत्व की खोज कर रहा है।
                    साभार : युग पुरूष युग धर्म

दर्शन की उत्कट इच्छा

मनुष्य मात्र के अन्तर पुरूष की व्यक्त प्रतीमा श्री श्री ठाकुर के दर्शन की उत्कट इच्छा भला किसे नहीं होती। क्यों चाहते हैं लोग उन्हें इतना? उनकी एक झलक देखने का सुख वह परम शुभलग्न है जिसे हर मनुष्य बार बार पाना चाहता है. मन नहीं भरता। लगातार लोग आते जा रहे हैं। घंटों घंटों पंक्तिबद्ध से खड़े। कुछ सुध नहीं। न खाने की चिन्ता न पीने की। बस किसी भांति दर्शन हो जाए। चाहे मुंह से कुछ न कह सकें पर उनकी एक दृष्टि को तरसते लोग मानो दर्शन मात्र से ही सबकुछ पा जाएंगे। बन्दे पुरूषोत्तम की ध्वनि से गुंज उठा आसमान।
एक लड़का घंटों प्रतीक्षा के पश्चात उनके पास पहुंचा। उसे देखते ही ठाकुर पूछ पड़े : तुम्हारा सर क्यों मुंडाया है रे।
लड़के ने कहा : ठाकुरॐ मेरे पिता का देहांत हो गया।
श्री श्री ठाकुर : क्या हुआ था ऋ
लड़का : ज्वर खांसी और भी उपसर्ग थे। पिताजी के मृत्यु का दृश्य बड़ा अद्भूत था।
श्री श्री ठाकुर : वह कैसा ऋ
लड़का : आपसे तो कुछ छुपा नहीं है आप तो वहॉं मौजुद ही थे।
श्री श्री ठाकुर : वह कैसे ऋ
लड़का : हां ठाकुर! उस दिन मेरे पिता ने मुझे सबेरे बुलाकर कहा : “देखो खोका ! मेरी बुलाहट आ गई है. आज मुझे जाना पड़ेगा। मेरे जाने के समय तुम लोग रोने धोने के बजाय नाम करोगे जिससे मैं उनका नाम सुनते सुनते जा सकूं। ठाकुर का चित्र मेरे सामने रखो। दयाल को देखते देखते ही उनके निकट चला जाऊंगा। तुम्हें मैं धन संपति कुछ न दे सका। लेकिन अपना  सर्वश्रेष्ठ धन तुम्हें देकर जा रहा हूँ और वह है ‘मेरे ठाकुर। मेरे ठाकुर को कदापि नहीं भूलोगे यजन. याजन. ईष्टभृति ठीक से करोगे।” इतना कहने के साथ साथ ही मेरे पिता की तबियत खराब होने लगी। पिताजी ने मुझसे जो कुछ कहा उन बातों को मॉं से न कह कर. अपने निकटतम दो एक सत्संगियों को लेकर पिता जी के बिछावन पर बैठे बैठे उच्चस्वर में नाम करने लगा। आपका फोटो उस जगह पर टांगा जिससे पिताजी देख सकें। पिताजी ने दो एक बार आंखें खोलकर फोटो को देखा उस समय मुझे ऐसा लगा वे भीतर भीतर नाम करने की चेष्टा कर रहे हैं। बाद में उन्हें श्वास कष्ट आरंभ हुआ। फिर भी वे अति कष्ट से फोटो देखते ही रहे। हमलोग नाम कर रहे थे मुझे भीतर ही भीतर रूलाई आ रही थी. किन्तु पिता जी की बातें स्मरण कर  मैं रोया नहीं और नाम करता रहा। उस समय मॉं आकर जोर जोर से रोने लगी। मैंने मॉ को भी नाम करने को कहा। थोड़ा संभलने के बाद मॉं भी नाम करने लगी। पिता जी फोटो देखते देखते बोल उठे : वह देखो सोने के रथ पर ठाकुर मुझे  ले जाने के लिए आए हैं। देखो मेरे ठाकुर का कैसा दिव्य रूप है। पिता जी के चेहरे रोग यन्त्रणा का कोई चिन्ह नहीं दिखाई  दे रहा था। वास्तव में आपको ही देख रहे थे। चेहरे पर मुस्कान छाई थी। तीन बार दयाल कहते हुए हाथ जोड़कर  आपको प्रणाम किया। तत्पश्चात् उनके प्राण पखेरू उड़ गए। उस समय करीब ग्यारह बजे थे………पिता जी की बात जब  याद आती है तो मन बहुत दुखित हो जाता है। उस समय मैं यही सोचता हूँ कि उन्हें मैं नहीं देखूं पर पर इतना अवश्य है कि  वे आपके निकट शान्ति से हैं।
श्री श्री ठाकुर : तुम्हारे पिता पुण्यात्मा थे. इस लिए ऐसी मृत्यु हुई्र जो वास्तव में इष्टप्राण होते हैं मृत्युकाल में इष्ट का स्मरर्ण मनर्न  अव्याहत रहता है। तुम्हारे पिता असली बात कह गए. जो नित्य दिन नियमित रूप से यजन याजन इष्टभृति करता है उसके चेहरे पर एक द्युति दीख पड़ती है। वह द्युति ही कह देती है कि वह परमपिता की सीमा में है। इस लिए शैतान या ग्रह उस पर कोई बड़ा आघात देकर घायल नहीं कर सकता।     आलोचना प्रसंग।

सत्य घटना

13 मार्च 2003 को सत्संग के आचार्य परम पूज्यपाद श्री श्री दादा के प्रेरणानुसार पूरे भारतवर्ष में श्री श्री ठाकुर के जितने भी श्री मन्दिर एवं केन्द्र हैं जिनकी संख्या तकरीबन 8000 के लगभग है इन सभी जगह प्रति केन्द्र 100 दीक्षा का दायित्व सौंपा गया। पूज्यपाद दादा के आशिर्वाद से ऐसी भाव सृष्टि हुई कि रात होते होते 8.00000 दीक्षा के स्थान पर लगभग 13.00000 दीक्षा पूर्ण हुई।कितने लोंगो की कैसी कैसी अनुभूति रही होगी इसका आख्यान करने का सामथर्य किसमें है।
लेकिन उस दिन अपर आसाम के नामरूप गांव के श्री श्री ठाकुर के अनन्य प्रेमी अतुल बोरा के जीवन में एक ऐसी अपूर्व घटना घटित हुई जिसे सुनकर पूज्यवर दादा और बबाई दा के प्रति उनके हर अनुयायियों का ह्दय अपार श्रद्धा आर प्रेम से भर उठा।
90 वर्षीय अतुल बोरा श्री श्री ठाकुर के ऋत्विक एवं नामरूप सत्संग के जाने माने कर्मी हैं अपने जीवन के एक एक क्षण को इन्होंने श्री श्री ठाकुर के नाम से संजोया और उनके आदेश के पालन में प्राणपन्न से तत्पर रहे।संसार ने उनको चाहे जो कहा लेकिन उनका ह्दय साक्षी था कि जगनियन्ता स्वयं श्री श्री ठाकुर के रूप में जगत के कल्याण हेतु पूनः जीवन धारण कर धर्म की वास्तविक परिभाषा जीकर दिखाने अवतरित हुए हैं।अपने अब तक के जीवन में अतुल बोरा ने हजारों लोंगो को सत्नाम की दीक्षा दी पिछले दस सालों से मोतियाबिन्द के की तकलीफ से उन्हें अपार कष्ट हो रहा था।अधिक ऊम्र. दुर्बलता व अन्य बीमारियों के कारण उनकी आखों का उपचार करने कोई डाक्टर तैयार नहीं होता।कई बार शंकर नेत्रालय व अन्य संस्थानों में भी दिखाया गया पर सभी जगह डाक्टरों का यही कहना था कि मोतियाबिन्द के अलावा इनकी आंखों में और भी कुछ ऐसे विकार हैं जिससे आपरेशन करने का मतलब ही है आंखों की रौशनी को पूर्णतः खो देना।
13 अप्रेल को घटना कुछ इस प्रकार हुई अतुल दा की तबियत कहीं से ठीक नहीं थी उन्हें पूज्यवर बबाई दा का आदेश मिला कि नामरूप के दीक्षा कार्यक्रम में उनके माध्यम से ही सभी दीक्षा हों।अतुल दा और अन्य कार्यकर्ता आश्चर्यचकित कि यह कैसे सम्भव है? क्योंकि वह तो एक घंटा भी ठीक से बैठ नहीं पाते तो 100 दीक्षा के लिए पूरे दिन कैसे बैठे रह सकते हैं?
लेकिन आदेश तो आदेश है। अपने आचार्य की इच्छा को पूर्ण करने वे अपने शरीर की अस्वस्था को भूल गए और ऋत्विक की पोशाक पहन दीक्षा के लिए नियत स्थान पर पहुंच गए।दीक्षा कार्यक्रम आरम्भ हुआ तकरीबन 1र्520 दीक्षा के बाद ही अतुल दा की आंखों में अचानक असहनीय पीड़ा हुई और उनकी आंखों के आगे अन्धेरा हो गया उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन अधीर हुए बिना वे दीक्षा मंत्र पढ़ते रहे क्योंकि इतने वर्षों से दीक्षा देते देते उन्हें सब याद तो था ही।मन थोड़ा अधिर हुआ तो उन्होंने संयम रखते हुए अन्दर ही अन्दर अपने ठाकुर से प्रार्थना की : “हे ठाकुर! यह आंख तो जाने ही वाली थी पर आपकी कैसी असीम दया है कि आंख के जाते जाते भी आपने कुछ सत्कार्य करवा लिया और वे शान्तभाव से दीक्षा देते रहे।इन लोंगो की दीक्षा जैसे पूर्ण हुई।वे अपने परीचितों को पुकार कर बताने ही वाले थे कि उनकी आंखों की रौशनी चली गई है कि बाहर से आवाज आई : अतुल दा! 10 आदमी दीक्षा के लिए और तैयार हैं अन्दर भेज दें!
अतुल दा ने अपने इष्ट की इच्छा जान मौन रहना ही उचित समझा और दीक्षा कार्यक्रम आरम्भ होगया।इसी प्रकार 45 के उपर दीक्षा हो गई और जब दीक्षा के लिए अगला दल आया तो दीक्षा देते देते ही अचानक अतुल दा को लगा जैसे आंखों के सामने कोई दिव्य ज्योति जल उठी हो और उन्हें बिना किसी कष्ट के जैसे बालक की आंखों में रौशनी होती है वैसे ही दिखाई देने लगा।
यह है इष्ट के प्रति भक्ति और इष्ट की असीम दया।
निवारण कौन कर सकता है जो कारण जानता है जैसे एक डाक्टर अपने रोगी की अवस्था एक्सरे देखकर जान लेता है कि रोगी को क्या बीमारी है और उसका क्या इलाज है अब रोगी के उपर निर्भर है वह श्रद्धा विश्वास से इलाज करवाता है तो जरूर अच्छा हो जाता है।उसी प्रकार पूज्यवर दादा बबाई दा के सामीप्य जो कोई जिस भाव से भी जाता है वे बिना कुछ बताए उसके जीवन के हर रहस्य को जान लेते हैं।पर जो उनसे युक्त होता है उनके आदेश में रहता है उसे अपनी चिन्ता नहीं करनी होती।इष्ट आदेश का पालन करते करते उसके जीवन की तमाम आवश्यकताएं शांत होने लग जाती हैं ओर यह सब प्रकृतगत होता है।
                                        सत्संग