प्रातः कालीन विनति
राधा स्वामी नाम जो गावे सोई तरे।
कल कलेश सब नाश।सुख पावे सब दुःख टरे।।1।।
ऐसा नाम अपार कोई भेद न जानई।
जो जाने सो पार।बहुरि न जग में जनमई।।2।।
राधा स्वामी गायकर।जनम सफल करले।
यही नाम निज नाम है।मन अपने धरले।।3।।
बैठक स्वामी अद्भूति।राधा निरख निहार।
और न कोई लख सके शोभा अगम अपार।।4।।
गुप्त रूप जहां धारिया।राधा स्वामी नाम।
बिना मेहर नहीं पावई।जहां कोई विश्राम।।5।।
करूं बन्दगी राधास्वामी आगे।
बिन परताप जीव बहु जागे।।6।।
बारम्बार करूं परनाम।
सत्गुरू पदम धाम सतनाम।।7।।
आदि अनादि युगादि अनाम।
संत स्वरूप छोड निज धाम।।8।।
आये भौजल पार लगाई।
हमसे जीवन लिया चढाई।।9।।
शब्द दृढाया सूरत बताई।
करम भरम से लिया बचाई।।10।।
कोटि कोटि करूं वन्दना अरब खरब दंडौत।
राधास्वामी मिल गये खुला भक्ति का श्रोत।।11।।
भक्ति सुनाई सबसे न्यारी।
वेद कतेब न ताहि बिचारी।।12।।
सत्तपुरूष चौथे घर पद वासा।
संतन का वहां सदा बिलासा।।13।।
सो घर दरसाया गुरू पूरे।
बीन बजे वहां अचरज तुरे।।14।।
आगे अलख पुरूष दरबारा।
देखा जाय सूरत से सारा।।15।।
तिस पर अगम लोक एक न्यारा।
संत सुरत कोई करत विहारा।।16।।
तहां से दरसे अटल अटारी।
अद्भूत राधा स्वामी महल संवारी।।17।।
सुरत हुई अतिकर मगनानी
पुरूष अनामी जाय समानी।।18।।
सांन्ध्यकालीन विनति
बार बार करूं विनती।राधास्वामी आगे।
डया करो दाता मेरे।चित चरणन लागे।।1।।
जन्म जन्म रही भूल में।नहीं पाया भेदा।
काल करम के जाल में।रहि भोगत खेदा।।2।।
जगत जीव भरमत फिरें।नित चारो खानी।
ज्ञानी जोगी पिल रहे।सब मन की घानी।।3।।
भाग्य जग मेरा आदिका।मिले सत्गुरू आई।
राधास्वामी धाम का। मोहि भेद जनाई।।4।।
उंचा से उंचा देश है।वह अधर ठिकानी।
बिना संत पावे नहीं।श्रुत शब्द निशानी।।5।।
राधास्वामी नाम की।मोहिं महिमा सुनाई।
विरह अनुराग जगाय के।घर पहुंचुं भाई।।6।।
साध संग कर सार रस।मैंने पिया अघाई।
प्रेम लगा गुरू चरण में।मन शांति न आई।।7।।
तडप उठे बेकल रहुं।कैसे पिया घर जाई।
दर्शन रस नित नित लहूं।गहे मन थिरताई।।8।।
सुरत चढे आकाश में।करे शब्द बिलासा।
धाम धाम निरखत चले।पावे निज घर वासा।।9।।
यह आशा मेरे मन बसे।रहे चित उदासा।
विनय सुनो किरपा करो।दीजे चरण निवासा।।10।।
तुम बिन कोई समरथ नहीं जासे मांगू दाना।
प्रेम धार किरपा करो।खोलो अमृत खाना।।11।।
दीन दयाल दया करो।मेरे समरथ स्वामी।
शुकर करूं गावत रहुं।नित राधास्वामी।।12।।
कल कलेश सब नाश।सुख पावे सब दुःख टरे।।1।।
ऐसा नाम अपार कोई भेद न जानई।
जो जाने सो पार।बहुरि न जग में जनमई।।2।।
राधा स्वामी गायकर।जनम सफल करले।
यही नाम निज नाम है।मन अपने धरले।।3।।
बैठक स्वामी अद्भूति।राधा निरख निहार।
और न कोई लख सके शोभा अगम अपार।।4।।
गुप्त रूप जहां धारिया।राधा स्वामी नाम।
बिना मेहर नहीं पावई।जहां कोई विश्राम।।5।।
करूं बन्दगी राधास्वामी आगे।
बिन परताप जीव बहु जागे।।6।।
बारम्बार करूं परनाम।
सत्गुरू पदम धाम सतनाम।।7।।
आदि अनादि युगादि अनाम।
संत स्वरूप छोड निज धाम।।8।।
आये भौजल पार लगाई।
हमसे जीवन लिया चढाई।।9।।
शब्द दृढाया सूरत बताई।
करम भरम से लिया बचाई।।10।।
कोटि कोटि करूं वन्दना अरब खरब दंडौत।
राधास्वामी मिल गये खुला भक्ति का श्रोत।।11।।
भक्ति सुनाई सबसे न्यारी।
वेद कतेब न ताहि बिचारी।।12।।
सत्तपुरूष चौथे घर पद वासा।
संतन का वहां सदा बिलासा।।13।।
सो घर दरसाया गुरू पूरे।
बीन बजे वहां अचरज तुरे।।14।।
आगे अलख पुरूष दरबारा।
देखा जाय सूरत से सारा।।15।।
तिस पर अगम लोक एक न्यारा।
संत सुरत कोई करत विहारा।।16।।
तहां से दरसे अटल अटारी।
अद्भूत राधा स्वामी महल संवारी।।17।।
सुरत हुई अतिकर मगनानी
पुरूष अनामी जाय समानी।।18।।
सांन्ध्यकालीन विनति
बार बार करूं विनती।राधास्वामी आगे।
डया करो दाता मेरे।चित चरणन लागे।।1।।
जन्म जन्म रही भूल में।नहीं पाया भेदा।
काल करम के जाल में।रहि भोगत खेदा।।2।।
जगत जीव भरमत फिरें।नित चारो खानी।
ज्ञानी जोगी पिल रहे।सब मन की घानी।।3।।
भाग्य जग मेरा आदिका।मिले सत्गुरू आई।
राधास्वामी धाम का। मोहि भेद जनाई।।4।।
उंचा से उंचा देश है।वह अधर ठिकानी।
बिना संत पावे नहीं।श्रुत शब्द निशानी।।5।।
राधास्वामी नाम की।मोहिं महिमा सुनाई।
विरह अनुराग जगाय के।घर पहुंचुं भाई।।6।।
साध संग कर सार रस।मैंने पिया अघाई।
प्रेम लगा गुरू चरण में।मन शांति न आई।।7।।
तडप उठे बेकल रहुं।कैसे पिया घर जाई।
दर्शन रस नित नित लहूं।गहे मन थिरताई।।8।।
सुरत चढे आकाश में।करे शब्द बिलासा।
धाम धाम निरखत चले।पावे निज घर वासा।।9।।
यह आशा मेरे मन बसे।रहे चित उदासा।
विनय सुनो किरपा करो।दीजे चरण निवासा।।10।।
तुम बिन कोई समरथ नहीं जासे मांगू दाना।
प्रेम धार किरपा करो।खोलो अमृत खाना।।11।।
दीन दयाल दया करो।मेरे समरथ स्वामी।
शुकर करूं गावत रहुं।नित राधास्वामी।।12।।
प्रातःसान्ध्यकालीन विनति
बार बार कर जोड कर।सविनय करूं पुकार।।
साध संग मोहि देव नित।परम गुरू दातार।।1।।
कृपा सिंधु समरथ पुरूष।आदि अनादि अपार।
राधास्वामी परम पितु।मैं तुम सदा अधार।।2।।
बार बार बल जाऊं।तन मन वारूं चरण पर।।
क्या मुखले मैं गाऊं।मेहर करी जस कृपा कर।।3।।
धन्य धन्य गुरूदेव।दयासिंधु पूरण धनी।।
नित करूं तुम सेव।अचल भक्ति मोहे देव प्रभू।।4।।
दीन अधीन अनाथ।हाथ गहा तुम आनकर।
अब राखो नित साथ।दीन दयाल कृपानिधि।।5।।
काम क्रोध मद लोभ।सब बिधि अवगुण हार मैं।।
प्रभु राखो मेरी लाज।तुम द्वारे अब मैं पडा।।6।।
राधास्वामी गुरू समरथ।तुम बिन और न दुसरा।।
अब करो दया प्रत्यक्ष।तुम दर एति विलंब क्यों।।7।।
दया करो मेरे सांईयां। देवो प्रेम की दात।।
दुख सुख कुछ व्यापे नहीं।छुटे सब उत्पात।।8।।
सद्गुरू वन्दना
बार बार कर जोड कर।सविनय करूं पुकार।।
साध संग मोहि देव नित।परम गुरू दातार।।1।।
कृपा सिंधु समरथ पुरूष।आदि अनादि अपार।
राधास्वामी परम पितु।मैं तुम सदा अधार।।2।।
बार बार बल जाऊं।तन मन वारूं चरण पर।।
क्या मुखले मैं गाऊं।मेहर करी जस कृपा कर।।3।।
धन्य धन्य गुरूदेव।दयासिंधु पूरण धनी।।
नित करूं तुम सेव।अचल भक्ति मोहे देव प्रभू।।4।।
दीन अधीन अनाथ।हाथ गहा तुम आनकर।
अब राखो नित साथ।दीन दयाल कृपानिधि।।5।।
काम क्रोध मद लोभ।सब बिधि अवगुण हार मैं।।
प्रभु राखो मेरी लाज।तुम द्वारे अब मैं पडा।।6।।
राधास्वामी गुरू समरथ।तुम बिन और न दुसरा।।
अब करो दया प्रत्यक्ष।तुम दर एति विलंब क्यों।।7।।
दया करो मेरे सांईयां। देवो प्रेम की दात।।
दुख सुख कुछ व्यापे नहीं।छुटे सब उत्पात।।8।।
सद्गुरू वन्दना
गुरूब्र्रह्मा गुरुरबिष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरूरेव परम ब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
अखन्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
स्थावरंजंगमं व्याप्तं येन कृत्स्नं चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
चिद्रुपेण परिव्याप्तं त्रेलोक्यं सचराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
न गुरोरधिकं तत्वं न गुरोरधिकमं तपः।
तत्वज्ञानात परं नास्ति तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।
मन्नाथः श्री जगन्नाथो मद्गुरू श्री जगद्गुरू।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।
गुरूरादिरनादिश्च गुरूः परमदैवतम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूत्तिम्।
द्वन्द्वातीतमं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।।
एकनित्यं विमलमचलमं सर्वधीसाक्षीभूतम्।
भावातीतमं त्रिगुणरहितं सत्गुरूं त्वां नमामि।।
कीर्तन
जय राधे राधे कृष्ण कृष्ण
गोबिन्द गोबिन्द बोलो रे
राधे गोबिन्द गोबिन्द गोबिन्द गोबिन्द
गोबिन्द बोलो सदा डाको रे।
छाडो रे मन कपट चातुरि
बदोने बोलो हरि हरि
हरि नाम परमब्रह्म जीवेर मूल धर्म
अधर्म कुकर्म छाडो रे।
छाडो रे मन भवेरो आशा
अजपा नामे करो रे नेशा
राधे गोबिन्द नामटी बदोने लइए
नयन नीरे सदा भासो रे।र्
- श्री श्री ठाकुर
अखन्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकया।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
स्थावरंजंगमं व्याप्तं येन कृत्स्नं चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
चिद्रुपेण परिव्याप्तं त्रेलोक्यं सचराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
न गुरोरधिकं तत्वं न गुरोरधिकमं तपः।
तत्वज्ञानात परं नास्ति तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।
मन्नाथः श्री जगन्नाथो मद्गुरू श्री जगद्गुरू।
मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।
गुरूरादिरनादिश्च गुरूः परमदैवतम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्री गुरूवे नमः।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूत्तिम्।
द्वन्द्वातीतमं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।।
एकनित्यं विमलमचलमं सर्वधीसाक्षीभूतम्।
भावातीतमं त्रिगुणरहितं सत्गुरूं त्वां नमामि।।
कीर्तन
जय राधे राधे कृष्ण कृष्ण
गोबिन्द गोबिन्द बोलो रे
राधे गोबिन्द गोबिन्द गोबिन्द गोबिन्द
गोबिन्द बोलो सदा डाको रे।
छाडो रे मन कपट चातुरि
बदोने बोलो हरि हरि
हरि नाम परमब्रह्म जीवेर मूल धर्म
अधर्म कुकर्म छाडो रे।
छाडो रे मन भवेरो आशा
अजपा नामे करो रे नेशा
राधे गोबिन्द नामटी बदोने लइए
नयन नीरे सदा भासो रे।र्
- श्री श्री ठाकुर
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