आर्यावर्त की भूमि पर आर्य संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा के लिए युग पुरुषोत्तम श्री श्री ठाकुर अनुकुलचंद्र जी का
अविर्भाव भाद्र माह, पुण्य तालनवमी तिथि शुक्ल पक्ष दिनांक १४ सितम्बर, सन् १८८८ पूर्व बंगाल यानि आधुनिक बांग्लादेश के पबना जिला के हिमायत पुर ग्राम में उस समय हुआ जब अतृप्त, छुद्धित, तृषित जगत में कुसंस्कार से दबी धारा क्लांत हो रही थी।
इर्ष्या द्वेष और प्रतिहिंषा के भावः से दबा राष्ट्र विदेशी ताकतों और साम्प्रदायिकता की आग में झुलश रहा था। बिदेशी पद्यति पर राजनैतिक आन्दोलन प्रारम्भ किए जा रहे थे। भारतीय संस्कृति की भावः धारा को बगैर समझे वरिष्ठ राजनेता पश्चिमीकरण का अन्धानुकरण कर रहे थे। धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदार मानव मानव में विभेद करा रहे थे।
प्रेम और पावनता के उद्गाता इस महामानव ने अस्ति वृद्धि के निमित सम्पूर्ण मनुष्य जाती को यजन, याजन, इष्टवृति का अमोघ कवच देकर अभयदान दिया।
मानव जाती के उनयन्न के लिए अपनी अनगिनत वाणियों के मध्यम से धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, विवाह, सुप्रजानन, विज्ञानं, न्यायनीति, कूटनीति, राजनीती, प्रवृति, निवृति, सिक्षा इत्यादि असंख्य विषयों पर विज्ञानं सम्मत समीक्षा की।
वर्तमान समाया में लुप्त हो रही नारी मर्यादा की उच्च परिकष्ठा को प्रतिष्ठित करने के लिए नारी निति पुस्तक के मध्यम से नारी समाज को अपने वैशिस्ट में पुनः जाग्रत होने का आह्वान किया।
श्री श्री ठाकुर की अमिया वाणियों का दुर्लभ संग्रह विभिन् पुस्तकों के रूप में सत्संग में प्रकाशित हो चुके हैं।
विश्वव्यापी लोककल्याण के प्रचेस्ता श्री श्री ठाकुर ने विनाश के कगार पर खरी दुनिया में प्रेम करुणा का ऐसा महाशस्त्र चलाया है जहाँ उनके असंख्य अनुयाई बासुदेव कुटुम्बकम के महाभाव में एक सुंदर, स्थिर, शान्ति प्रद जीवन जीते हुए प्रेम राज्य में समाहित हो रहे हैं।
अविर्भाव भाद्र माह, पुण्य तालनवमी तिथि शुक्ल पक्ष दिनांक १४ सितम्बर, सन् १८८८ पूर्व बंगाल यानि आधुनिक बांग्लादेश के पबना जिला के हिमायत पुर ग्राम में उस समय हुआ जब अतृप्त, छुद्धित, तृषित जगत में कुसंस्कार से दबी धारा क्लांत हो रही थी।
इर्ष्या द्वेष और प्रतिहिंषा के भावः से दबा राष्ट्र विदेशी ताकतों और साम्प्रदायिकता की आग में झुलश रहा था। बिदेशी पद्यति पर राजनैतिक आन्दोलन प्रारम्भ किए जा रहे थे। भारतीय संस्कृति की भावः धारा को बगैर समझे वरिष्ठ राजनेता पश्चिमीकरण का अन्धानुकरण कर रहे थे। धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदार मानव मानव में विभेद करा रहे थे।
ऐसे दूषित व कुत्सित मनोधरा से प्रशस्त शताब्दी में श्री श्री ठाकुर जाती धर्म संप्रदाय के एकत्व के निमित अनादी व अनंत प्रेम का स्पर्श प्रदान करने इस धारा पर विराजित हुए।
श्री श्री ठाकुर के मतानुसार : " प्रत्येक सच्चा धार्मिक व्यक्ति सच्चा हिंदू भी है सच्चा मुस्लमान भी है और सच्चा इसाई भी है। जहाँ कही इसमे व्यतिकर्म दिखाई देता है वहां धर्म नहीं है धर्म के नाम पर कृत्रिमता है पाखंड है।
इस बात को उन्होंने सिर्फ़ कहा ही नही धर्म समन्वय की बात कहकर वे मौन नहीं रहे बिकी हिंदू सिख
इस बात को उन्होंने सिर्फ़ कहा ही नही धर्म समन्वय की बात कहकर वे मौन नहीं रहे बिकी हिंदू सिख
इन सबको बिना धर्म परिवर्तन कराये एक ही मंत्र द्वारा दिक्चित करके अध्यात्मिक अनुभूतियों की समानता की सत्यता का अनुभव कराया। व्यक्ति जब अपने शरीर से साधना बल द्वारा सत्य चैतन्यशक्ति एव आत्मसाक्षात्कार की उपलब्धि प्राप्त करता है तब अनुभूतियाँ अलग अलग कैसे हो सकती हैं।
वैज्ञानिक द्रिष्टिकोण से अध्यात्मिक सत्य की अन्वेषण शाला खोलकर श्री श्री ठाकुर ने धर्म समनवय की द्रिस्ती से एक नया द्रिस्तिकों जगत को दिया।
वैज्ञानिक द्रिष्टिकोण से अध्यात्मिक सत्य की अन्वेषण शाला खोलकर श्री श्री ठाकुर ने धर्म समनवय की द्रिस्ती से एक नया द्रिस्तिकों जगत को दिया।
धर्म परिवर्तन को विश्वश्घट कहते हुए उन्होंने स्पस्ट कहा :- "कभी कोई महापुरूष धर्म त्याग कराने नही आते महापुरुष आते है परिपूर्ण करने.उन्नति और विकाश के पथ को विस्तृत करने। "
धर्म परिवर्तन का अर्थ है पित्र रक्त धारा को विछिन्न करना। पित्र रक्त धारा में रहता है जिव कोष का अविनश्वर फूल ! इस अविनश्वर फूल अर्थात बिज़ में पित्र पुरुषों का ज्ञान रूप ओज विशेष शक्ति विराजित रहती है। धर्म परिवर्तन से ज्ञान उस अमित रक्त धारा में अविरोध आ जाता है अविनश्वर शक्तिधर से जिव वंचित रह जाता है। उन्नत जिव कोष दूषित और चिन्न्तर हो जाता है, जिसके कारण विश्वास घातकता का मादा बढ़ जाता है, आत्मिक विश्वास मर जाता है। पित्र रक्त धारा से विछिन्न धर्मान्तरित व्यक्ति की ईश्वरीय धारा पर आस्था स्थाई नही रह पाती।
धर्म परिवर्तन का अर्थ है पित्र रक्त धारा को विछिन्न करना। पित्र रक्त धारा में रहता है जिव कोष का अविनश्वर फूल ! इस अविनश्वर फूल अर्थात बिज़ में पित्र पुरुषों का ज्ञान रूप ओज विशेष शक्ति विराजित रहती है। धर्म परिवर्तन से ज्ञान उस अमित रक्त धारा में अविरोध आ जाता है अविनश्वर शक्तिधर से जिव वंचित रह जाता है। उन्नत जिव कोष दूषित और चिन्न्तर हो जाता है, जिसके कारण विश्वास घातकता का मादा बढ़ जाता है, आत्मिक विश्वास मर जाता है। पित्र रक्त धारा से विछिन्न धर्मान्तरित व्यक्ति की ईश्वरीय धारा पर आस्था स्थाई नही रह पाती।
इस लिए किसी अवतार ने धर्म परिवर्तन की बात नही की, बल्कि अविनश्वर पित्र शक्ति धारा को उन्नत करने की बात बताई है। इसलिए जो अपनी पित्र धारा से वांची वंचित हो गए है उन्हें पुनः अपनी पित्र धारा में लौट आना चाहिए।"
श्री श्री ठाकुर के सर्व धर्म महातीर्थ में सिर्फ़ धर्म पिपासु ही नहीं आये बल्कि रास्ट्रीय विधातागन भी अपनी आनेक समस्या के समाधान हेतु समय समय पर आते रहे।
राजनीती पर अपना द्रिस्तिकोंह स्पस्ट करते हुए खा :- राजनीती है पुर्त निति! अर्थात् पूर्ण करने की निति .राजनीती धर्म का ही अंग है. बहरी वास्तु नहीं!"
श्री श्री ठाकुर एक ऐसे जीवंत आदर्श के रूप में मनुष्य मात्र के सामने उपस्थित हुए जिनके समक्ष सम्पूर्ण वाद विवाद, वृति- प्रवृति, नियंत्रित रहे। उन्होंने अपने असंख्यों अनुयाइयों के ह्रदय के अज्ञान को दूर कर प्रेम स्पर्श द्वारा आन्तरिक सुख का एक विलक्षण पथ प्रशस्त किया। उन्होंने एक तरफ़ आध्यात्मिकता को जीवन वृद्धि की दिशा में बढ़ने का पता दिखाया तो दूसरी और विज्ञानं को अमरितवा की प्राप्ति की दिशा में लगने का रास्ता बताया।
श्री श्री ठाकुर का प्राकट्य एक ऐसे सर्व त्यागी के रूप में हुआ जिन्होंने कभी किसी का त्याग नही किया बल्कि सबको जीवन वृद्धि की दिशा में लगने का नविन मार्ग दिखाया।
श्री श्री ठाकुर ने एक ऐसे मानवीय दल का सृजन किया जो अविश्वाश, अप्रेम भरे वर्तमान दूषित माहौल में विश्वाश, प्रेम, मिलन, भाईचारा के स्वर्गराज्य का निर्माण कर रहा है। श्री श्री ठाकुर के सर्व धर्म महातीर्थ में सिर्फ़ धर्म पिपासु ही नहीं आये बल्कि रास्ट्रीय विधातागन भी अपनी आनेक समस्या के समाधान हेतु समय समय पर आते रहे।
राजनीती पर अपना द्रिस्तिकोंह स्पस्ट करते हुए खा :- राजनीती है पुर्त निति! अर्थात् पूर्ण करने की निति .राजनीती धर्म का ही अंग है. बहरी वास्तु नहीं!"
श्री श्री ठाकुर एक ऐसे जीवंत आदर्श के रूप में मनुष्य मात्र के सामने उपस्थित हुए जिनके समक्ष सम्पूर्ण वाद विवाद, वृति- प्रवृति, नियंत्रित रहे। उन्होंने अपने असंख्यों अनुयाइयों के ह्रदय के अज्ञान को दूर कर प्रेम स्पर्श द्वारा आन्तरिक सुख का एक विलक्षण पथ प्रशस्त किया। उन्होंने एक तरफ़ आध्यात्मिकता को जीवन वृद्धि की दिशा में बढ़ने का पता दिखाया तो दूसरी और विज्ञानं को अमरितवा की प्राप्ति की दिशा में लगने का रास्ता बताया।
श्री श्री ठाकुर का प्राकट्य एक ऐसे सर्व त्यागी के रूप में हुआ जिन्होंने कभी किसी का त्याग नही किया बल्कि सबको जीवन वृद्धि की दिशा में लगने का नविन मार्ग दिखाया।
प्रेम और पावनता के उद्गाता इस महामानव ने अस्ति वृद्धि के निमित सम्पूर्ण मनुष्य जाती को यजन, याजन, इष्टवृति का अमोघ कवच देकर अभयदान दिया।
मानव जाती के उनयन्न के लिए अपनी अनगिनत वाणियों के मध्यम से धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, विवाह, सुप्रजानन, विज्ञानं, न्यायनीति, कूटनीति, राजनीती, प्रवृति, निवृति, सिक्षा इत्यादि असंख्य विषयों पर विज्ञानं सम्मत समीक्षा की।
वर्तमान समाया में लुप्त हो रही नारी मर्यादा की उच्च परिकष्ठा को प्रतिष्ठित करने के लिए नारी निति पुस्तक के मध्यम से नारी समाज को अपने वैशिस्ट में पुनः जाग्रत होने का आह्वान किया।
श्री श्री ठाकुर की अमिया वाणियों का दुर्लभ संग्रह विभिन् पुस्तकों के रूप में सत्संग में प्रकाशित हो चुके हैं।
विश्वव्यापी लोककल्याण के प्रचेस्ता श्री श्री ठाकुर ने विनाश के कगार पर खरी दुनिया में प्रेम करुणा का ऐसा महाशस्त्र चलाया है जहाँ उनके असंख्य अनुयाई बासुदेव कुटुम्बकम के महाभाव में एक सुंदर, स्थिर, शान्ति प्रद जीवन जीते हुए प्रेम राज्य में समाहित हो रहे हैं।
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