संदीपन

12 फ़र॰ 2010

पावन संस्कृति

आज हमने अपनी पावन संस्कृति का आधार छोड़कर मनमाना आचरण आरम्भ किया है । शास्त्रों के  मनन चिन्तन को छोडकर उसके पाठ पूजन पर ही विशेष ध्यान दिया जा रहा है.  जिसके कारण शास्त्रों की बाहरी पूजा तो बढ गई है लेकिन स्वधर्म के प्रति अनुशासन हीनता की प्रवृति ही पनप रही है।
सदाचार की अवहेलना तो मानो आधुनिकता का द्योतक हो गया है। आधुनिकता के लोभी मनुष्य अपनी बुद्धि पर किसी का नियन्त्रण स्वीकार नहीं करना चाहते।
वर्तमान शिक्षा पद्धति ने हमारे गौरवपूर्ण संस्कृति को आहत किया है।इसके तहत ही तो खाओ पीओ मौज करो का सिद्धान्त लोग तेजी से अपना रहे हैं। समाज में स्वच्छंद प्रेम. प्रेम विवाह. तलाक इत्यादि बातें आम हो गई है।
युग द्रष्टा श्री श्री ठाकुर ने परिवार समाज और राष्ट्र के मंगल के लिए अपनी संस्कृति की विशिष्टता पर जोड देकर कहा है :
                                              अमृत की संतति तू. अमृत तेरी जीवन धारा।
                                             मरण भजके मरण खोज के. होगा क्या सर्वहारा                                                                                                                अनुश्रुति खण्र्ड भाग : 2
सही मायने में देखा जाए तो श्री श्री ठाकुर द्वारा दिखाया गया सिद्धान्त ही जीवन की सार्थकता की प्राप्ति का एक मात्र मंगलमय पथ है।जिस पर चलकर जीवन कोे हर दृष्टिकोण से पूर्ण किया जा सकता है।आज क्या हो रहा है : नारी उत्पीडन. दहेज प्रथा.  गरीब व पिछडे वर्ग पर अत्याचार.  नीहित स्वार्थ. बच्चों तक से किए जा रहे अमानवीय कूकर्म के बीच आर्यों द्वारा निर्धारित महान् संस्कृति और धर्म गन्थों की मर्यादा कहॉं रह गई हैं।
आज बाहरी उन्नति हो चाहे पर आत्म उन्नति खतरे में पड गई है।

राष्ट्र के  विधि विधायकों को सावधान करते हुए श्री श्री ठाकुर ने बहुत पहले सावधान किया र्था “ऋषियों द्वारा स्थापित नियमों को नहीं मानने से राष्ट्र के समक्ष इतनी असामाण्जस्यताएं आएंगी कि उन्हें  दूर करने के लिए नित नए कानून बनाने होंगे उसके बाद भी व्यक्ति और समाज को एक सूत्र में बांध पाना कठिन होगा।”
देखा जाए तो आज देश के नागरिकों के साथ ऐसा ही हो रहा है।

आज के समय में जब हर कोई मनुष्य पाश्चात्य संस्कृति के आकर्षण में बंध रहा है तो बहुत आवश्यक हो गया है कि हम अपना  आत्म निरक्षण करें।श्री श्री ठाकुर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है : प्राचीन काल में ऋषि मुनि ही समाज के  नियन्ता होते थे।वे लोग इस बात पर बराबर ध्यान रखते थे कि मनुष्य कहीं से प्रवृति परायण न हो जाए।शिक्षा दीक्षा समाज व्यवस्था शादी विवाह इत्यादि का ढांचा वे ही तैयार करते थे।समाज में जब तक ऋषि महर्षियों का अनुशासन शक्तिशाली रहा तब तक आम आदमी कम विभ्रान्त हुआ। आधुनिकता  नाम पर हीन मान्यता वैशिष्ट्यहीनता उच्छृंखलता मतवाद को प्रश्रय देकर हमारे यहॉं के तथाकथित शिक्षित व्यक्ति जितना कुसंस्कार पन हो रहे हैं उतने हमारे देश के अनपढ व्यक्ति भी नहीं हुए।”  
     
श्री श्री ठाकुर ने कभी भी रूढीवादी मानसिकता की नहीं की. उन्होंने सदैव मूल सुधार की बात कही।न उन्होंने कभी पाश्चात्य शिक्षा को दोषी ठहराया दोषी ठहराया बल्कि उन्होंने दोषी ठहराया उस शिक्षा की बदहजमी को।

जब तक मनुष्य के सामने उसके अपने आचरण की सीमा रेखा नहीं होगी. तबतक उसके लिए अपने जीवन को सही पथ पर चला पाना कठिन होगा।अतः आज की परिस्थिति में सबसे अधिक आवश्यकता चरित्रवान व्यक्तियों की है जो आदर्श में युक्त हों             

एक निष्ठ हों तथा मर्यादाशील हों तभी परिवार समाज का मंगल हो सकता है।

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