मनुष्य मात्र के अन्तर पुरूष की व्यक्त प्रतीमा श्री श्री ठाकुर के दर्शन की उत्कट इच्छा भला किसे नहीं होती। क्यों चाहते हैं लोग उन्हें इतना? उनकी एक झलक देखने का सुख वह परम शुभलग्न है जिसे हर मनुष्य बार बार पाना चाहता है. मन नहीं भरता। लगातार लोग आते जा रहे हैं। घंटों घंटों पंक्तिबद्ध से खड़े। कुछ सुध नहीं। न खाने की चिन्ता न पीने की। बस किसी भांति दर्शन हो जाए। चाहे मुंह से कुछ न कह सकें पर उनकी एक दृष्टि को तरसते लोग मानो दर्शन मात्र से ही सबकुछ पा जाएंगे। बन्दे पुरूषोत्तम की ध्वनि से गुंज उठा आसमान।
एक लड़का घंटों प्रतीक्षा के पश्चात उनके पास पहुंचा। उसे देखते ही ठाकुर पूछ पड़े : तुम्हारा सर क्यों मुंडाया है रे।
लड़के ने कहा : ठाकुरॐ मेरे पिता का देहांत हो गया।
श्री श्री ठाकुर : क्या हुआ था ऋ
लड़का : ज्वर खांसी और भी उपसर्ग थे। पिताजी के मृत्यु का दृश्य बड़ा अद्भूत था।
श्री श्री ठाकुर : वह कैसा ऋ
लड़का : आपसे तो कुछ छुपा नहीं है आप तो वहॉं मौजुद ही थे।
श्री श्री ठाकुर : वह कैसे ऋ
लड़का : हां ठाकुर! उस दिन मेरे पिता ने मुझे सबेरे बुलाकर कहा : “देखो खोका ! मेरी बुलाहट आ गई है. आज मुझे जाना पड़ेगा। मेरे जाने के समय तुम लोग रोने धोने के बजाय नाम करोगे जिससे मैं उनका नाम सुनते सुनते जा सकूं। ठाकुर का चित्र मेरे सामने रखो। दयाल को देखते देखते ही उनके निकट चला जाऊंगा। तुम्हें मैं धन संपति कुछ न दे सका। लेकिन अपना सर्वश्रेष्ठ धन तुम्हें देकर जा रहा हूँ और वह है ‘मेरे ठाकुर। मेरे ठाकुर को कदापि नहीं भूलोगे यजन. याजन. ईष्टभृति ठीक से करोगे।” इतना कहने के साथ साथ ही मेरे पिता की तबियत खराब होने लगी। पिताजी ने मुझसे जो कुछ कहा उन बातों को मॉं से न कह कर. अपने निकटतम दो एक सत्संगियों को लेकर पिता जी के बिछावन पर बैठे बैठे उच्चस्वर में नाम करने लगा। आपका फोटो उस जगह पर टांगा जिससे पिताजी देख सकें। पिताजी ने दो एक बार आंखें खोलकर फोटो को देखा उस समय मुझे ऐसा लगा वे भीतर भीतर नाम करने की चेष्टा कर रहे हैं। बाद में उन्हें श्वास कष्ट आरंभ हुआ। फिर भी वे अति कष्ट से फोटो देखते ही रहे। हमलोग नाम कर रहे थे मुझे भीतर ही भीतर रूलाई आ रही थी. किन्तु पिता जी की बातें स्मरण कर मैं रोया नहीं और नाम करता रहा। उस समय मॉं आकर जोर जोर से रोने लगी। मैंने मॉ को भी नाम करने को कहा। थोड़ा संभलने के बाद मॉं भी नाम करने लगी। पिता जी फोटो देखते देखते बोल उठे : वह देखो सोने के रथ पर ठाकुर मुझे ले जाने के लिए आए हैं। देखो मेरे ठाकुर का कैसा दिव्य रूप है। पिता जी के चेहरे रोग यन्त्रणा का कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। वास्तव में आपको ही देख रहे थे। चेहरे पर मुस्कान छाई थी। तीन बार दयाल कहते हुए हाथ जोड़कर आपको प्रणाम किया। तत्पश्चात् उनके प्राण पखेरू उड़ गए। उस समय करीब ग्यारह बजे थे………पिता जी की बात जब याद आती है तो मन बहुत दुखित हो जाता है। उस समय मैं यही सोचता हूँ कि उन्हें मैं नहीं देखूं पर पर इतना अवश्य है कि वे आपके निकट शान्ति से हैं।
एक लड़का घंटों प्रतीक्षा के पश्चात उनके पास पहुंचा। उसे देखते ही ठाकुर पूछ पड़े : तुम्हारा सर क्यों मुंडाया है रे।
लड़के ने कहा : ठाकुरॐ मेरे पिता का देहांत हो गया।
श्री श्री ठाकुर : क्या हुआ था ऋ
लड़का : ज्वर खांसी और भी उपसर्ग थे। पिताजी के मृत्यु का दृश्य बड़ा अद्भूत था।
श्री श्री ठाकुर : वह कैसा ऋ
लड़का : आपसे तो कुछ छुपा नहीं है आप तो वहॉं मौजुद ही थे।
श्री श्री ठाकुर : वह कैसे ऋ
लड़का : हां ठाकुर! उस दिन मेरे पिता ने मुझे सबेरे बुलाकर कहा : “देखो खोका ! मेरी बुलाहट आ गई है. आज मुझे जाना पड़ेगा। मेरे जाने के समय तुम लोग रोने धोने के बजाय नाम करोगे जिससे मैं उनका नाम सुनते सुनते जा सकूं। ठाकुर का चित्र मेरे सामने रखो। दयाल को देखते देखते ही उनके निकट चला जाऊंगा। तुम्हें मैं धन संपति कुछ न दे सका। लेकिन अपना सर्वश्रेष्ठ धन तुम्हें देकर जा रहा हूँ और वह है ‘मेरे ठाकुर। मेरे ठाकुर को कदापि नहीं भूलोगे यजन. याजन. ईष्टभृति ठीक से करोगे।” इतना कहने के साथ साथ ही मेरे पिता की तबियत खराब होने लगी। पिताजी ने मुझसे जो कुछ कहा उन बातों को मॉं से न कह कर. अपने निकटतम दो एक सत्संगियों को लेकर पिता जी के बिछावन पर बैठे बैठे उच्चस्वर में नाम करने लगा। आपका फोटो उस जगह पर टांगा जिससे पिताजी देख सकें। पिताजी ने दो एक बार आंखें खोलकर फोटो को देखा उस समय मुझे ऐसा लगा वे भीतर भीतर नाम करने की चेष्टा कर रहे हैं। बाद में उन्हें श्वास कष्ट आरंभ हुआ। फिर भी वे अति कष्ट से फोटो देखते ही रहे। हमलोग नाम कर रहे थे मुझे भीतर ही भीतर रूलाई आ रही थी. किन्तु पिता जी की बातें स्मरण कर मैं रोया नहीं और नाम करता रहा। उस समय मॉं आकर जोर जोर से रोने लगी। मैंने मॉ को भी नाम करने को कहा। थोड़ा संभलने के बाद मॉं भी नाम करने लगी। पिता जी फोटो देखते देखते बोल उठे : वह देखो सोने के रथ पर ठाकुर मुझे ले जाने के लिए आए हैं। देखो मेरे ठाकुर का कैसा दिव्य रूप है। पिता जी के चेहरे रोग यन्त्रणा का कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। वास्तव में आपको ही देख रहे थे। चेहरे पर मुस्कान छाई थी। तीन बार दयाल कहते हुए हाथ जोड़कर आपको प्रणाम किया। तत्पश्चात् उनके प्राण पखेरू उड़ गए। उस समय करीब ग्यारह बजे थे………पिता जी की बात जब याद आती है तो मन बहुत दुखित हो जाता है। उस समय मैं यही सोचता हूँ कि उन्हें मैं नहीं देखूं पर पर इतना अवश्य है कि वे आपके निकट शान्ति से हैं।
श्री श्री ठाकुर : तुम्हारे पिता पुण्यात्मा थे. इस लिए ऐसी मृत्यु हुई्र जो वास्तव में इष्टप्राण होते हैं मृत्युकाल में इष्ट का स्मरर्ण मनर्न अव्याहत रहता है। तुम्हारे पिता असली बात कह गए. जो नित्य दिन नियमित रूप से यजन याजन इष्टभृति करता है उसके चेहरे पर एक द्युति दीख पड़ती है। वह द्युति ही कह देती है कि वह परमपिता की सीमा में है। इस लिए शैतान या ग्रह उस पर कोई बड़ा आघात देकर घायल नहीं कर सकता। आलोचना प्रसंग।
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