मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से भिन्न इसका अस्तित्व एक दिन के लिए भी नहीं टिक सकता।समाज निर्माण के आदिकाल में ही यह ईश्वरीय आदेश वेदवाणी के रूप में प्रगट हुआ “सवै नैवारे ते अस्माद एकाकी न रमते।” साथ ही वेद ने मनुष्य को आदेश दिया “संगच्छध्वं संवध्वं संबो मनांसि जानतं” अर्थात् हे मनुष्यों. तुम सभी एक साथ चलो एक साथ आलोचना करो।तुम्हारा मन उत्तम संस्कारों से युक्त हो।
यह सत्य है कि समाज की आधारशिला व्यक्ति ही है कारण व्यक्ति के सहयोगपूर्ण संगठन से ही समाज का निर्माण होता है और मानव समाज के जनपदीय राजनीतिक संगठन को राष्ट्र कहते हैं।देखा जाए तो समाज की उन्नति और राष्ट्र की प्रगति मूलतः व्यक्तित्व ही है।दंपति एवं परिवार ही समाज संगठन की प्रारम्भिक इकाईयॉं हैं।जिनके द्वारा व्यक्ति परिवार के माध्यम से समाज से युक्त होकर राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
श्री श्री ठाकुर के दृष्टि में समाज संगठन जीवन विकास की चरम सीमा पर अवस्थित है।जहॉं प्रत्येक मनुष्य को यह सुविधा प्राप्त है कि वह जीवन भर सांसारिक सुखों का त्यागपूर्ण उपभोग करता हुआ जीवन के चरम लक्ष्य महाचेतन के समुत्थान तक पहुँच जाय।
मनुष्य शब्द की उत्पति हुई है “मनुट्टष्य” अर्थात् मनु का पुत्र और “मन्ट्टउ” मनु के अनुसार मनु ब्रह्या के पुत्र हैं।बह्या शब्द की उत्पति वृह् धातु से हुई है जिसका अर्थ है विस्तार के पथ पर अभिगमन।इस कारण जो विस्तार के पथ पर विचरण करता है अथवा विश्व सेवा में आत्म नियोग कर समष्टि के मंगल के लिए अग्रसर होता है उसीका जीवन धन्य है।
श्री रामकृष्ण ठाकुर ने कहा था “प्रकृत मनुष्य वही है जो मन का संचालन चतुरता पूर्वक करता है।” शास्त्रकारों ने आत्मा की चंचल अवस्था को मन की संज्ञा दी है।मनुष्य को अपने मूल कर्तव्य से च्युत कर अधोमुख में ले जाने वाले जो मोह सम्बन्धी षट्रिपु हैं. मन उनकी क्रीड़ा भूमि है।
जब मनुष्य प्रकृति विरूद्ध विधान पर परिचालित होता है. तभी वह अपने वास्तविक उद्धेश्य से भटक जाता है।अतः आवश्यकता है मनुष्य शरीर के अन्दर मनुष्य निर्माण की।
आर्य ऋषि मनु महाराज ने इस तथ्य को समझा था इस लिए उन्होंने सामाजिक व्यवस्था के निमित्त चार आश्रम बनाए और पंच महायज्ञ का विधान रखा।जात कर्म से लेकर अंत्येष्टि तक के संस्कार जीवन को नियंित्रत करने के निमित्त ऋषियज्ञ. देवयज्ञ. भूतयज्ञ. पितृयज्ञ तथा नृयज्ञ ये पांच यज्ञ दैनन्दिन शरीर आत्मा और मन को वृद्धि के पथ पर अग्रसर करने के निमित्त आवश्यक समझे गए।
किन्तु कालक्रमानुसार आर्य भूमि में ही महान् आर्य ऋषियों का मानव के अस्ति वृद्धि के निमित्त बनाया गया मंगलकारी विधान शिथिल पड़ गया।संस्कार की मूल परिभाषा से विभ्रान्त मनुष्य अस्ति वृद्धि के मूल आधार को त्याग कर. मन इन्द्रिय का दास बन गया।यही कारण है कि व्यक्तिगत जीवन से लेकर जातीय जीवन तक शक्तिहीन निकम्मा बनता जा रहा है।संसार की शान्ति विनष्ट हो गई है।अल्पायु होकर मनुष्य अभावों की पूर्ति के निमित्त शान्ति की तलास में दर दर भटक रहा हैे।जब तक मनुष्य शारीरिक़ मानसिक़ आत्मिक उत्कर्ष की साधना में अग्रसर नहीं होताऌ उसकी भेद बुद्धि नष्ट नहीं होती और जब तक भेद बुद्धि स्थिर रहती है. स्वभावगत वृतियां दुषित होकर मनुष्य को अधोमार्ग पर ले जाती रहती है और इस तरह ऋषियों की धारा मनोमुखी आचरण द्वारा पीढ़ि दर पीढ़ि दुषित होती जाती है। आज चारों ओर जातीय जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर करने की चर्चा चल रही है।त्रस्त मानव के लिए शान्ति की चर्चा जोरों से हो रही है किन्तु जातीय जीवन के मूल उत्स व्यक्ति निर्माण की ओर किसी का ध्यान नहीं है।जब तक जातीय जीवन को सुख शान्तिमय बनाने के निमित्त व्यक्ति के निर्माण की चेष्टा नहीं की जाती. तब तक जाति की कल्याण कामना मृगमरीचिका तुल्य सिद्ध होती रहेगी।अतः बहुत आवश्यक है. समष्टि के मंगल के लिए ऋषियों द्वारा दिखाए विधान को जीवन में उतारना।
दिन रात अनिष्ट की आराधना में रत कल्याण पथ को खोज रहे प्राणियों की उपहास जनक स्थिति पर दृष्टा ह्दय श्री श्री ठाकुर समझा कि आचरण सिद्ध आचार्य के अभाव में किस प्रकार मनुष्य मृत्यु मार्ग का पथिक बनकर अमरत्व की खोज कर रहा है।
साभार : युग पुरूष युग धर्म
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