संदीपन

8 मार्च 2013

सर्वांग विकास

आज हमने चाहे जितनी तरक्की  करली हो. पर आज हमारे राष्ट्र का नैतिक अवमूल्यन हुआ है। साथ ही यह यह बात भी हमें स्वीकार करना ही होगी कि जब तक हमारे समाज की डोर ऋृषि मुनियों के हाथो थी हमारे समाज का ढांचा संतुलित था ।

क्योंकि हमारे ऋषि  मुनिगण वैज्ञानिक थे.  अनेकों अनुसन्धान करके उन्होंने मानव जाति के उत्थान व  सामाजिक एकीकरण के हित कुछ  नियम बनाया थे।उन नियमों के पालन से पूरा समाज संतुलित रहता था।

पर आज हमारा आम समाज है आचार्य विहीन है।
वेद में कहा गया है : हम सबका मंत्र एक हो! हम सबका आचार्य एक हो! हम सबके मन एक हों!

हमें यह देखना होगा कि वर्तमान समय में ऐसा कौन सा मंत्र. ऐसे कौन आचार्य है. जो हम सबको सामान रूप से लेकर चल रहे हैंॐ क्योंकि इतिहास गवाह है  भारत वर्ष जब जब विश्व गुरू के पद पर पदासीन हुआ तब तब भारत वर्ष में आचरण सिद्ध आचार्य  समाज व राष्ट्र के संचालक थे।

यह एक विचारणीय प्रश्न है कि आज राष्ट्र किधर जा रहा है? श्री श्री ठाकुर ने कहा हैः भारत वासियों ने ऋषियों को छोडकर  ऋृषिवाद  की उपासना प्रारभ की है !
जिसके फलस्वरूप हमने सहजात गुणों से विस्मृत हुए है।

इस सृष्टि में जितनी भी स्थूल सूक्ष्म शक्तियां है उन सबमें अपना अपना गुण विद्यमान है।
उन गुणों के आधार पर ही उनकी  पहचान है।जैसे  अग्नि जल वायु पृथ्वी आकाश इन सबकी अनी अपनी  गुणवत्ता है।
इसी तरह ईश्वर द्वारा जिस किसी सत्ता की रचना हुई. उन सबके अन्दर उनका अपना अपना निज गुण मौजुद है। वैसे तो स्थूल सूक्ष्म जो कुछ इस सृष्टि में विद्यमान है. सबकुछ  ईश्वर द्वारा ही रचा गया है। परन्तु उनकी समस्त रचनाओं में जो सबसे सुन्दर रचना है :  वह है मनुष्य।

मनुष्य की रचना के साथ ईश्वर ने उसके अन्दर इतने गुणों का समावेश किया है कि अगर वह चाहे तो अपने जीवन काल में. अपने गुणों के आधार पर ईश्वर तुल्य हो सकता है।

स्वर्ण चाहे कितना बेशकीमती क्यों न हो. अगर उसे तपा कर तराशा न जाए. तो कभी भी वह आभुषण नहीं बन सकता।इसी भांति मनुष्य जीवन में विद्यमान गुणों को सही तरीकों से व्यवहार में न लाया जाए. तो उसका सम्पूर्ण विकास सम्भव नहीं हो पाता।

मानव शरीर धारण करने से ही कोई मनुष्य नहीं हो जाता, उसी प्रकार एक आश्रम या संत के सुंदर दोहे व बड़े बड़े प्रवचन देने से ही कोइ गुरू भी नहीं हो जाता। जहां ज्यादा प्रचार है. वहां थोड़ा सावधान भी रहने की आवश्यकता है ? उसी भांति जैसे मां अपने बच्चो को खाना खिलाती है. तो क्या प्रचार करती हैऋ

उसी प्रकार सद्गुरू का ह्दय मां जैसा होता है वे कभी प्रचार कर लोंगो को दिखाकर कृपा नहीं करते।वे एक मां की भांति सदैव यही चाहते हैं कि उनके शिष्य कड़ी मेहनत करके जीवन संग्राम में सफल हो।

श्री श्री  ठाकुर  ने धरती पर अवतरित होकर. प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित की है। इसी लिए उन्हें कहा जाता है परम प्रेममय श्री श्री ठाकुर के बताए मार्ग पर चलकर ही हम जान पाये कि इस धरती पर सबसे सुंदर अगर कुछ है तो वह है प्रेम!
  प्रेम ही वह तत्व है जो मनुष्य की हर समस्या को सुलझा सकता है।

आज जो संसार में सर्वत्र अन्याय. अत्याचार और हिंसा का माहौल है उसका मुख्य कारण ही है आपसी प्रेम की कमी।कहा जाता है बसुदेव कुटुंबकम ! लेकिन सारा संसार तो क्या. घर के चार प्राणी भी कुटुंब की तरह रहते नहीं देखे जाते।

वहीं एक तरफ अपने गुरू भाइ बहनों को देखते हैं. तो एक दो नहीं लाखों लाखों व्यक्ति एक ऐसी सुख शांति की अविरल धारा में बहते हुए. अपने दैनिक जीवन की सम्पूर्ण जिम्मेवारियों को निभाते हुए. ऊंचे लक्ष्य को पाने की राह में उत्साह के साथ चल रहे हैं ऋ

आखिर ऐसी कौन सी बात है जो हमे ठाकुर जी की भावधारा में इतना सुख़ इतना आनंद देती है !

लाखों लाखों लोंगो में हम देखते है। चाहे किसी के घर नही. गाड़ी नहीं. अन्य भौतिक सुख साधन नहीं. लेकिन उनका चेहरा उनकी आवाज एक अलग ओज से भरपूर रहती है। साथ ही उनके पास होता है. जीने का एक ऐसा शानदार तरीका. एक ह्दय स्पर्शी आत्म तृप्ति!

क्योंकि श्री श्री ठाकुर ने कहा है : “सद्गुरू शरणापन्न हो।सतनाम मनन करो. मैं निश्चय कहता हूं तुम्हे अपने उन्नयन के लिए सोचना नहीं पडेगा।”

जिस प्रकार वाणिज्य में पी। एच। डी। करनी है. तो हमें एक वाणिज्य में पीएचडी   प्राप्त अध्यापक के पास जाना पडता है।उसी प्रकार. जीवन के उन्नयन के लिए अर्थात जीवन में सर्वांग प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हम एक ऐसे मास्टर के पास जाएं. जो कि सर्वांग रूप से विकसित हों।    
अगर हम गौर से देखें. तो जीवन के सर्वांग विकास में. सर्वप्रथम हम खुद ही बाधक होते हैं। पहले हम यह समझें कि उन्नयन या सर्वांग विकास क्या है?

सर्वांग विकास का अर्थ ठीक वैसा है. जैसे एक नन्हा बीज स्वभाविकता के साथ पनपता हुआ  बडा वृक्ष बन जाता है।

एक नवजात शिशु सम्पूर्ण विकास के साथ. युवावस्था की ओर बढ़ता है। परन्तु कई बार ऐसा भी होता है. शरीर का तो विकास हो जाता है. पर देखने सुनने अथवा सोचने की शक्ति का विकास नहीं हो पाता।तो क्या हम उसे सर्वांग विकास कहेंगे ?

इसी तरह. हम सामान्य जीवन यापन कर रहे हैं या आधुनिकॐ मुख से स्वीकार नहीं करके भी हम जानते हैं कि हमारे जीवन का चहुंमुखी विकास नहीं हो पा रहा।
  1.  नौकरी व्यापार ठीक चल रहा है. तो घर में माता –पिता. पत्नी या बच्चे कोई न कोई बीमार है।
  2. घर परिवार ठीक है. तो व्यापार ठीक नहीं।
  3. कहने को मित्र हजार हैं. जरूरत पड़ने पर कोई साथ नहीं।
  4. जिन्दगी ठीक चल रही है! उन्नति भी हो रही है! पर अचानक कोई बड़ी बीमारी या कोई दुर्घटना हो जाती है।  सबकुछ ठीक है. तो बेटा साथ नहीं।
अर्थात् हर समय असमंजस्।
आज तक़ आम आदमी केवल यही सोचता है कि सब भाग्य की बात है।
लेकिन हम भाग्यशाली हैं। हम लोंगो को श्री श्री ठाकुर की दया पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेकिन जिन लोंगो को श्री श्री ठाकुर की दया पाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ उनके लिए और हम सभी के लिए भी श्री श्री ठाकुर कहते  है : “ मनुष्य कुपथ पर चलकर अपनी ही चेष्टा से स्वयं ही दुख पैदा करता है।जब दुख आ घेरता है. यदि उस समय भी. वह उस दुख से त्राण पाना चाहे तो उसके लिए पथ खुला है।”
इसीलिए श्री श्री ठाकुर को हम दयाल कहते हैं।बडी से बडी विषम घडी में भी. हम अगर अपना अन्तरमन खुला रखें और अन्तर ह्दय से सतनाम को स्वीकार करते हुए. यजन - याजन  - ईष्टभृति के विधान का पालन करें. तो यह प्रामाणिक सत्य है कि हमारे जीवन में जितनी समस्याएं नहीं हैं. उससे बडा समाधान हमारे समक्ष उपस्थित रहेगा।
यह बात निश्चित है कि वर्षों की तपस्या के बाद देवत्व दर्शन का जो सुख नहीं मिलता वह सच्चे मन से श्री श्री ठाकुर की शरणागति व आचार्यदेव श्री श्री दादा व पूज्यनीय बबाई दा के सानिध्य से व उनके एक छोटे से से क्षण मात्र में प्राप्त हो जाता है बस जरूरत है सरलभाव, सच्चे मन व सद् विचार के साथ उनके प्रति आत्म समपर्ण की।
आज भी श्री श्री ठाकुर परमपूज्यपाद श्री श्री दादा एवं पूज्यनीय बबाई दा के रूप में. इस धरती पर व्याप्त समस्त जीव मात्र के जीवन को. अन्धकार से निकाल कर महाप्रकाश की ओर ले जाने के लिए उपस्थित हैं।

      शांति! शांति! शांति!

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