संदीपन

26 मार्च 2013

ठाकुर की दया - 2


आज के सन्दर्भ की बात की जाये तो पल पल में रंग बदलती दुनिया में आदमी जाये तो कहाँ जाए?
सबकुछ लुटा लुटा है!

सुशिक्षा  का अभाव, सुव्यवस्था का आभाव, शांति और भाईचारे का अभाव हर टफ  दुःख चल कपट कहीं किसी का आसरा नहीं।

किसे अपना कहे ? हर जगह दुकाने ही सजी है सब बिकता है धर्म ! कर्म !
पर सही कुछ नहीं मिलता!

ऐसे में ठाकुर अनुकुलचंद्र जी के रस्ते पर जो भाग्यशाली आगये वे निश्चित ही बच पाए।

ठाकुर अनुकुलचंद्र  की दया अर्थात् ईश्वरीय दया! श्री कृष्ण की दया! श्री राम की दया! रसूल एवं जेसस की दया! अतः ठाकुर की दया को पाना अपने आपको पाना है।

ठाकुर की दया को पाना एक अलौकिक सुख को पाना है। ठाकुर की दया को पाना अपने जीवन के सम्पूर्ण दायित्व के प्रति अपने आत्म बोध को पाना है। ठाकुर की दया को पाना अपने जीवन के परम लक्ष्य को  पाना है।

ठाकुर की दया को पाना अपनी आन्तरिक व बाहरी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करना है। ठाकुर की दया को पाना एक गौरवपूर्ण जीवन को यापन करना है।

जैसे सूर्य उदित होते ही किसी को बताना नहीं पड़ता कि कहां नदी है और कहां पहाड़! कहां रास्ता है और कहां मकान!

उसी तरह ठाकुर की दया पाते ही मनुष्य को अपने जिम्मेवारियों और कर्तब्यों के प्रति अपनी आत्मचेतना  में बोध होने लगता है। मनुष्य की आन्तरिक दृष्टी जागृत  होती है जिससे मनुष्य का विवेक एवं निर्णय शक्ति का विकास सहज भाव से होता है।

 इससे आपसी रिश्तों में सुधार होता है। जीवन में सामन्जस्यता बढ़ती है। आपसी मतभेद कम होते हैं। एक दूसरे के प्रति सद्भावना जागती है। जिसके फलस्वरूप जीवन में शान्ति का मार्ग प्रशस्त होकर चहुं ओर विकास होता है।

लेकिन ठाकुर की दया को प्राप्त करने के लिए आत्ममंथन आवश्यक है:-

ठाकुर की दया केवल उनके लिए नहीं होती जिन्होंने उनकी दीक्षा प्राप्त की।

 बल्कि धरा पर व्याप्त प्रत्येक मनुष्य के लिए उनकी दया है।

ठाकुर की दया का अर्थ कोई चमत्कार नहीं होता।

 उनकी दया का अर्थ उनकी इच्छा को जानना उनकी इच्छा के अनुसार अपना जीवन यापन  करना।

और उनकी  इच्छा है कि हम सब प्राणी का जीवन  संस्कारवान हो. सद्गुणों से अलंकृत हो. पुरूषार्थी हो. दुर्बल और हीन भावना से दूर हो और निरन्तर आचार्य परमपूज्यपाद श्री श्री दादा एवं पूज्यनीय बबाई दा के सम्पर्क में हों।

उनकी दया  को पाने का अर्थ तो उनकी भावना में रम जाना है।

 ठीक उसी तरह जैसे गोपियां कृष्ण की भावना से ओत प्रोत थीं। गोपियों की तरह समर्पण की भावना आए बिना ठाकुर की दया को पाना सहज नहीं है।

उनके प्रति समर्पण. उनके प्रति प्रेम. उनकी प्रत्येक आज्ञा का अनुशरण हमारे जीवन में व्याप्त अन्धकार को निकाल कर एक दिव्य प्रकाश की ओर लेकर जाता है।

 आज प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति व्यक्ति के बीच की दूरी को मिटाने के लिए एवं समाज और राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए ठाकुर की भावना को आम लोंगो के ह्दय तक पहुंचाया जाए।

आज की परिस्थिति में हर व्यक्ति के अन्दर असुरक्षा की भावना है। व्यक्ति उपर ही उपर चाहे कितना भी सबल क्यों न दिखे परन्तु नाना प्रकार की दुर्बलताओं से ग्रसित रहता है।

क्योंकि केवल सत्य की बातें करने से सत्य नहीं जागता। सत्य जगाने के लिए सत्यदर्शी चाहिए। उसी तरह ज्ञान की बातें बताने से और ज्ञान का बोध हो जाए आवश्यक नहीं।

 ठाकुर सत्य बताते नहीं सत्य जगाते हैं। बोध की बात नहीं करते प्रत्येक व्यक्ति का एक दूसरे के प्रति क्या कर्तब्य है इस बात का बोध जगा देते हैं।

ठाकुर के प्रति शुद्व भाव जगाए बिना ठाकुर की बात को जीवन में उतार पाना आसान नहीं होता। अतः आवश्यक है उनकी भावना को जगाया जाए।

ठाकुर काईे अन्य नहीं ठाकुर वहीं है जो जन जन में व्याप्त हैं।

आवश्यकता है अपने अन्दर बैठे उनके स्वरूप को निहारने की। जैसे जैसे उनका स्वरूप मन के आसन पर प्रतिष्ठित होते जाता है रामायण श्रीमद्भगवद् गीता की बात कुराण व बाइबल की बात स्वतः हमारे व्यवहार में प्रकट होने लगती है।

हमारे अन्दर की निर्णायक शक्ति अपना कार्य सटिकता के साथ सार्थक होने लगती है कि कहां चुप रहना है कहां बोलना है कहां कोध करना है कहां मोह करना है।

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