संदीपन

7 मार्च 2013

सभी वर्णो की सामुहिक चेष्टा से ही समाज बडा बन सकता है

आज नारी उत्पीडन. दहेज प्रथा. गरीब व पिछडे वर्ग पर अत्याचार. नीहित स्वार्थ के लिए नृशंस हत्याएं. अपहरण. बच्चों तक से अमानवीय व्यवहार जैसी घटनाओं के बीच आर्य संस्कृति की मर्यादा कहां रह गई हैं?
मुठ्ठी भर लोंगो के अदूरदर्शी सोच के कारण. आज पूरा राष्ट्र. आन्तरिक कलह. भ्रान्त प्रतिस्पर्धा और विभत्स राजनीति का शिकार हुआ है।
सही मायने में आज उन व्यक्तियों की आत्मोन्नति खतरे में पड गई. जिनके जीवन में किसी महापुरूष का समावेश नहीं है।
राष्ट्र के विधि विधायकों को सावधान करते हुए पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर  ने कहा था : ऋषियों द्वारा स्थापित नियमों को न मानने के कारण. राष्ट्र के समक्ष इतनी असामंजस्यताएं आएंगी कि उन्हें दूर करने के लिए.  नित नए कानून बनाने होंगे। उसके बाद भी व्यक्ति और समाज को एक सूत्र में बांध पाना कठिन होगा।”
उन्होंने हमेशा कहा है व्यष्टि से ही समष्टि है। अर्थात् व्यक्ति से ही समाज है। अतः आदमी को पहले आदमी बनाना होगा। श्री ठाकुर  ने कहा है:

“अमृत की ही संतति तू।
अमृत ही तेरी जीवन धारा।।
मरण भजके जीवन तजके।
होगा क्या सर्वहारा।।”

आज के परिवेश में जब मनुष्य आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति की भावधारा में बह रहा है. तो ऐसे में आवश्यक हो गया है कि हम पूनः अपना आत्म निरक्षण करें।
पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने स्पष्ट कहा: “सभी वर्णो की सामुहिक चेष्टा से ही समाज बडा बन सकता है। प्राचीन काल में ऋषि महर्षि ही समाज के नियन्ता होते थे।वे लोग इस बात पर बराबर ध्यान रखते थे कि कि मनुष्य कहीं से भी प्रवृति परायण न बन जाए।शिक्र्षादीक्षा. सर्माा व्यवस्था. शार्दी विवाह इत्यादि का ढांचा वे ही तैयार करते थे।
समाज में जब तक ऋृषि महर्षियों का अनुशासन. शक्तिशाली रहा तब तक साधारण मनुष्य कम ही विभ्रान्त हुआ। किन्तु आज पाश्चात्य शिक्षा के सम्मुखीन होकर. सबकुछ क्षीण भीन्न हो गया।”
आज परिवार–समार्जराष्ट्र में जो कुछ दीख रहा है। क्या हम सचमुच ऐसे थे?
क्या आज हमने अपने को उदारवादी कहलाने के लोभ में. अपनी आत्म मर्यादाशीलता नहीं गंवाई है?
दुर्भाग्य की बात है हम पाश्चात्य शिक्षा की अच्छाई को ग्रहण करने में असमर्थ रहे।। हमने आत्म अवज्ञा अपनाई है।    
हम सभी गुरू भाई बहन इस लिए भाग्यशाली हैं कि हमारे पास आज के विभ्रान्त युग में कैसे रहना है? कैसे चलना है? यह सब बताने के लिए पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर का दिखाया हुआ सत्मार्ग है. सहज सरल विधान है।
इतना ही नहींॐ स्वयं पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर. प्रथम प्रधानाचार्य श्री श्री बडदा. आचार्यदेव परमपूज्यपाद श्री श्री दादा एवं पूज्यनीय बबाई दा के रूप में हर समय हर घडी हमें थाम कर चल रहे हैं।
आज उनकी दया से एक बार फिर हर व्यक्ति एक दूसरे को बचाने और बढाने के भाव को लेकर एक दूसरे के करीब आ रहे हैं। वैमनस्यकता दूर हो रही है। यही तो ईश्वरीय भाव है।
इन भावों की पृष्टभूमि में ही तो हमारी महान संस्कृति व पूर्वजों का गौरव विद्यमान है। मानवता के उत्कर्ष के लिए आज ऐसे ही सद्भाव की तो आवश्यकता है।
आज हमें तत्परता और सावधानी के साथ सतनाम व यजन. याजन. ईष्टभृति के विधान पर चलते हुए अपनी नींव पर अटल होकर रहना है।
आडम्बर रहित होकर. अपने आपसी रिश्तों का सम्मान आदर के साथ करना है।
श्री श्री ठाकुर ने कहा हैः “जगत कल्याण के लिए अनेक शुद्ध आत्माएं चाहिए.  परन्तु जो शुद्ध आत्माएं हैं। वे निरालम वायुभूत में निराश्रय होकर चक्कर काट रही है। उन्हें जन्म ग्रहण करने के लिए उचित जगह नहीं मिल रही है। द्वार द्वार पर किवाड ठकठका कर वे घुम रही हैं। जहां निष्ठा नहीं है। पवित्रता नहीं है। सदाचार नहीं है। संयम नहीं हैं। विहित सुसंस्कार नहीं हैं। वहां तो वे आ नहीं सकती। सात्विक विचार। सदाचार। विधि विधानों को पूनर्जीर्वत न करें तो सिर्फ आदर्श का भाषण देने से कुछ नहीं होगा।”
अतः जो सुसंस्कारी व्यक्ति हैं. उनका यह प्रथम दायित्व है कि अपने संतान अपने परिवार परिवेश में सुविचार. सदाचार के भावों का अधिकता के साथ पालन करे।


नारी को अपनी गरिमा  जगानी होगी !

और इन सबका दायित्व पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर  ने सबसे अधिक नारी शक्ति को ही दिया है। क्योंकि जब तक नारी का अपने नारीत्व और अपने मातृत्व के प्रति दायित्च बोध जागृत नहीं होगा. तब तक उसके स्वामी के अन्दर पौरूषत्व एवं उसकी संतान संतति के अन्दर सदाचार। संयम। पवित्रता। कर्तब्य परायणता का श्रेष्ठ गुण कौन जगाएगा?
नारी एक तरफ पुरूष के पौरूषत्व को उंची परिकाष्ठा पर स्थाईत्व प्रदान करने एवं उसके कैवल्य प्राप्ति की उच्चतम साधन है।
तो दूसरी तरफ वही नारी. मातृ रूपी अपनी सत्ता को जागृत कर. अपनी संतान के अन्दर उच्च आदर्श स्थापित कर सम्पूर्ण मानव जाति के लिए महानतम वरदान है।
जब तक मां अपनी संतान के जीवन में उच्च संस्कार नहीं जगाएगी तो उसकी संतान के भविष्य को उज्जवल कौन बनाएगाऋ
हमें आत्म मंथन करना होगा कि त्रुटि कहां हुई? परिवार की धूरि कहलाने वाली नारी क्यों जो आज पुरूष के पौरूषत्व की गरिमा को खंड खंड करने में अग्रीम भूमिका निभा रही है।
आगे बढने की ओर एवं आधुनिक दिखने की होड में। नारी जगत ने अपने ही आत्म सम्मान को चोट पहुंचाया है।यही कारण है व्यक्ति समाज राष्ट्र की आत्मोन्नति खतरे में पड गई है।
अगर सम्पूर्ण नारी जीवन को एक अन्तरद्रष्टा की संज्ञा दी जाए तो शायद अतिशियोक्ति नहीं होगी।
परन्तु तब! जब नारी अपनी स्वसत्ता को जागृत करले। पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने नारी नीति के माध्यम से नारी चरित्र का जो एक उच्चत्तम आदर्श प्रस्तुत किया है। उसका मनन व अनुसरण कर कोई भी नारी अपने चरित्र को उन्नत और आदरणीय बना सकती है।

आईए! श्री श्री ठाकुर के दिखाए विधान को अपने परिवेश और परिपर्स्विक  के जीवन में उतारने के प्रयास को एक सार्थक रूप प्रदान करें।

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