नारी न केवल मनुष्य जाति की जननी है। बल्कि मनुष्य को मनुष्यता प्रदान कराने वाली उच्च शिक्षाकेन्द्र है।
नारी का प्रथम रूप कन्या है।परन्तु एक कन्या बडी होकर क्या होगी! कैसी होगी! इस बात की जिम्मेवारी उसकी जननी पर ही होती है।बाल्यकाल से ही उसे उंचा संस्कार देने की आवश्यकता होती है।
नारी का चरित्र भाव प्रधान होता है। वे भावित भी जल्द होती हैं।अतः नारी अच्छी और बुरी दोनो प्रकार की भावनाओं से जल्दी प्रभावित हो जाती है।
आज की परिस्थिति में हम देखते है कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में दूसरे व्यक्ति के लिए अच्छी भावनाओं का अभाव है. एक विपरित भाव का प्रतिद्वन्द उसके मन में चलता रहता है।
समय के साथ इस क्षीण भावना ने एक रोग का रूप धारण कर लिया है।
इसके फलस्वरूप पहले मन बिगडता है। फिर परिवेश बिगडता है। एक दिन पूरे घर का वातावरण बिगड जाता है।
बच्चों के संस्कार प्रभावित होते हैं। पुरूष की मानसिकता बदल जाती है।आपसी रिश्तों में तनाव आता है।
उसका प्रतिकूल प्रभाव बच्चों की पढाई पर. पुरूषों के आर्थिक परिस्थिति पर पडता है और उनके स्वास्थ पर भी पडता है।घर की सुख शान्ति क्षीण हो जाती हैं।
सही मायने में सोचा जाए तो इतनी बीमारियां पैदा कहां से हुई?
पुरूषोत्तम प्रभु श्री श्री ठाकुर त्रिकालज्ञ हैं। वे जानते हैं कि मानव जाति को फिर से गौरवान्वित करना है तो नारी जगत के आत्म गौरव को पूनः प्रतिष्ठित करना होगा।
तभी व्यक्र्तिव्यक्ति के निज उत्थान का अवरूद्ध मार्ग फिर से प्रशस्त हो सकेगा।
इसी लिए समस्त नारी जगत का आह्वान करते हुए पुरूषोत्तम प्रभु श्री श्री ठाकुर कह रहे हैः “तुम मनुष्य की मां जैसा बनने की चेष्टा करो …… ”
श्री श्री ठाकुर ने नारी को मां कह कर पुकारा। क्योंकि नारी मां है। और जो मां है! उससे क्या सम्भव नहीं हो सकता? लेकिन नारी शरीर होने से मां के गुण भी जाग उठेंगे। यह आवश्यक तो नहीं।नारी को अपने नारीत्व के गुणों को जगाना होगा।
हम सभी गुरू भार्ई बहन जानते हैं कि श्री श्री ठाकुर ने कोई भी बात केवल कही नहीं। बल्कि स्वयं चले साथ ही. उन्हीं आचरणों पर श्री श्री बोडदा चले और आज तक परमपूज्यपाद श्री श्री दादा पूज्यनीय बबाई दा चल रहे हैं। उनका पूरा परिवार पूज्यनीय जेठी मां एवं सभी पू. बहुरानियां चल रही हैं।
नारी का प्रथम रूप कन्या है।परन्तु एक कन्या बडी होकर क्या होगी! कैसी होगी! इस बात की जिम्मेवारी उसकी जननी पर ही होती है।बाल्यकाल से ही उसे उंचा संस्कार देने की आवश्यकता होती है।
नारी का चरित्र भाव प्रधान होता है। वे भावित भी जल्द होती हैं।अतः नारी अच्छी और बुरी दोनो प्रकार की भावनाओं से जल्दी प्रभावित हो जाती है।
आज की परिस्थिति में हम देखते है कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में दूसरे व्यक्ति के लिए अच्छी भावनाओं का अभाव है. एक विपरित भाव का प्रतिद्वन्द उसके मन में चलता रहता है।
समय के साथ इस क्षीण भावना ने एक रोग का रूप धारण कर लिया है।
इसके फलस्वरूप पहले मन बिगडता है। फिर परिवेश बिगडता है। एक दिन पूरे घर का वातावरण बिगड जाता है।
बच्चों के संस्कार प्रभावित होते हैं। पुरूष की मानसिकता बदल जाती है।आपसी रिश्तों में तनाव आता है।
उसका प्रतिकूल प्रभाव बच्चों की पढाई पर. पुरूषों के आर्थिक परिस्थिति पर पडता है और उनके स्वास्थ पर भी पडता है।घर की सुख शान्ति क्षीण हो जाती हैं।
सही मायने में सोचा जाए तो इतनी बीमारियां पैदा कहां से हुई?
पुरूषोत्तम प्रभु श्री श्री ठाकुर त्रिकालज्ञ हैं। वे जानते हैं कि मानव जाति को फिर से गौरवान्वित करना है तो नारी जगत के आत्म गौरव को पूनः प्रतिष्ठित करना होगा।
तभी व्यक्र्तिव्यक्ति के निज उत्थान का अवरूद्ध मार्ग फिर से प्रशस्त हो सकेगा।
इसी लिए समस्त नारी जगत का आह्वान करते हुए पुरूषोत्तम प्रभु श्री श्री ठाकुर कह रहे हैः “तुम मनुष्य की मां जैसा बनने की चेष्टा करो …… ”
श्री श्री ठाकुर ने नारी को मां कह कर पुकारा। क्योंकि नारी मां है। और जो मां है! उससे क्या सम्भव नहीं हो सकता? लेकिन नारी शरीर होने से मां के गुण भी जाग उठेंगे। यह आवश्यक तो नहीं।नारी को अपने नारीत्व के गुणों को जगाना होगा।
हम सभी गुरू भार्ई बहन जानते हैं कि श्री श्री ठाकुर ने कोई भी बात केवल कही नहीं। बल्कि स्वयं चले साथ ही. उन्हीं आचरणों पर श्री श्री बोडदा चले और आज तक परमपूज्यपाद श्री श्री दादा पूज्यनीय बबाई दा चल रहे हैं। उनका पूरा परिवार पूज्यनीय जेठी मां एवं सभी पू. बहुरानियां चल रही हैं।
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