आर्यावर्त की भूमि पर. आर्य संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा के लिए. युग
पुरुषोत्तम श्री श्री ठाकुर अनुकुलचंद्र जी का अविर्भाव. भाद्र माह, पुण्य
तालनवमी तिथि शुक्ल पक्ष दिनांक १४ सितम्बर, सन् १८८८ पूर्व बंगाल
यानि आधुनिक बांग्लादेश के पबना जिला के हिमायत पुर ग्राम में. उस समय हुआ
जब अतृप्त, छुद्धित, तृषित जगत में. कुसंस्कार से दबी धरा क्लांत हो रही
थी।
हिंषा और प्रति हिंषा के भावः से दबा राष्ट्र विदेशी ताकतों और साम्प्रदायिकता की आग में झुलश रहा था। बिदेशी पद्यति पर राजनैतिक आन्दोलन प्रारम्भ किए जा रहे थे। भारतीय संस्कृति की भावः धारा को बगैर समझे वरिष्ठ राजनेता. पश्चिमीकरण का अन्धानुकरण कर रहे थे। धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदार मानव मानव के बीच में भेद करा रहे थे। ऐसे दुषित व कुत्सित मनोधरा से प्रशस्त शताब्दी में श्री श्री ठाकुर. के एकत्व के निमित अनादि व अनंत प्रेम का स्पर्श प्रदान करने. इस धरा पर विराजित हुए।
श्री श्री ठाकुर के मतानुसार: " प्रत्येक सच्चा धार्मिक व्यक्ति सच्चा हिंदू भी है. सच्चा मुस्लमान भी है और सच्चा इसाई भी है। जहाँ कही इसमे व्यतिक्रम दिखाई देता ह वहां धर्म नहीं है. धर्म के नाम पर कृत्रिमता है. पाखंड है।
इस बात को उन्होंने सिर्फ. कहा ही नहीं. धर्म समन्वय की बात कहकर वे मौन नहीं रहे. बल्कि हिंदू सिख मुश्लिम इसाई इन सबको बिना धर्म परिवर्तन कराये. एक ही मंत्र द्वारा दीक्षित करके. अध्यात्मिक अनुभूतियों की समानता की सत्यता का अनुभव कराया।
व्यक्ति जब अपने शरीर से. साधना बल द्वारा अनंत चैतन्यशक्ति एव आत्मसाक्षात्कार की उपलब्धि प्राप्त करता है. तब अनुभूतियाँ अलग अलग कैसे हो सकती हैं? वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्यात्मिक सत्य की अन्वेषण शाला खोलकर. पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने धर्म समनवय की दृष्टि से एक नया दृष्टिकोण जगत को दिया।
धर्म परिवर्तन को विश्वासघात कहते हुए. उन्होंने स्पस्ट कहा:– "कभी कोई महापुरूष धर्म त्याग कराने नही आते। महापुरूष आते हैं परिपूर्ण करने. उन्नति और विकाश के पथ का विस्तार करने।"
श्री श्री ठाकुर ने कहा : “धर्म परिवर्तन का अर्थ है पितृ रक्त धारा को विछिन्न करना। पितृ रक्त धारा में रहता है जीव कोष का अविनश्वर फूल !
इस अविनश्वर फूल अर्थात बीज में पितृ पुरुषों का ज्ञान. रूप. ओज एवं सद्गुण विराजित रहते हैं।धर्म परिवर्तन से उस रक्त धारा के ज्ञानकोष में अविरोध आ जाता है। उन्नत जीव कोष दूषित और छिन्नतर हो जाता है, जिसके कारण विश्वास घातकता का मादा बढ़ जाता है, आत्मिक विश्वास मर जाता है। पितृ रक्त धारा से विछिन्न धर्मान्तरित व्यक्ति की ईश्वरीय धारा पर आस्था स्थाई नही रह पाती।
इस लिए किसी भी अवतार ने धर्म परिवर्तन की बात नही की, बल्कि अविनश्वर पितृ रक्त धारा को उन्नत करने की बात बताई है। इसलिए जो अपनी पितृ धारा से वंचित हो गए है. उन्हें पुनः अपनी पितृ धारा में लौट आना चाहिए।"
श्री श्री ठाकुर के सर्व धर्म महातीर्थ में सिर्फ धर्म पिपासु ही नहीं आये. बल्कि महात्मा गांधी. सुभाषचन्द्र बोस. देश बन्धु चित्तरंजन दास बोस. लाल बहादुर शास्त्री व अन्य राष्ट्रीय विधातागण भी अपनी अनेक समस्यों के समाधान हेतु समय समय पर आते रहे।
राजनीति पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा : – राजनीति है पूर्त नीति! अर्थात् पूर्ण करने की नीति। राजनीति धर्म का ही अंग है बाहरी वास्तु नहीं!"
श्री श्री ठाकुर एक ऐसे जीवंत आदर्श के रूप में मनुष्य मात्र के सामने उपस्थित हुए. जिनके समक्ष सम्पूर्ण वार्दविवाद, वृति–प्रवृति, नियंत्रित रहे। उन्होंने अपने असंख्य अनुयाइयों के ह्रदय के अज्ञान को दूर कर. प्रेम स्पर्श द्वारा आन्तरिक सुख का एक विलक्षण पथ प्रशस्त किया। एक तरफ उन्होंने आध्यात्मिकता को जीवन वृद्धि की दिशा में बढ़ने का पता दिखाया. तो दूसरी और विज्ञान को अमृत्व की प्राप्ति की दिशा में लगने का रास्ता बताया।
श्री श्री ठाकुर का प्राकट्य एक ऐसे सर्व त्यागी के रूप में हुआ. जिन्होंने कभी किसी चीज का त्याग नही किया। बल्कि सबको जीवन वृद्धि की दिशा में लगने का नवीन मार्ग दिखाया।
श्री श्री ठाकुर ने एक ऐसे मानवीय दल का सृजन किया जो अविश्वाश, अप्रेम भरे वर्तमान दूषित माहौल में विश्वाश, प्रेम, मिलन, भाईचारा के स्वर्गराज्य का निर्माण कर रहा है।प्रेम और पावनता के उद्गाता इस महामानव ने अस्ति वृद्धि के निमित सम्पूर्ण मनुष्य जाति को यजन, याजन, इष्टवृति का अमोघ कवच देकर अभयदान दिया। मानव जाति के उन्नयन के लिए अपनी अनगिनत वाणियों के माध्यम से धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, विवाह, सुप्रजनन, विज्ञानं, न्यायनीति, कूटनीति, राजनीति, प्रवृति, निवृति, शिक्षा इत्यादि असंख्य विषयों पर विज्ञान सम्मत समीक्षा की।
वर्तमान समय में लुप्त हो रही नारी मर्यादा की उच्च पराकाष्ठा को प्रतिष्ठित करने के लिए. नारी नीति पुस्तक के माध्यम से. नारी समाज को अपने वैशिष्ट्य में पुनः जागृत होने का आह्वान किया।
आज नारी उत्पीडन. नारी अत्याचार. बलात्कार. दहेज प्रथा. गरीब व पिछडे वर्ग पर अत्याचार. नीहित स्वार्थ के लिए नृशंस हत्याएं. अपहरण. बच्चों तक से अमानवीय व्यवहार जैसी घटनाओं के बीच आर्य संस्कृति की मर्यादा कहां रह गई हैं?
मुठ्ठी भर लोंगो के अदूरदर्शी सोच के कारण. आज पूरा राष्ट्र. आन्तरिक कलह. भ्रान्त प्रतिस्पर्धा और विभत्स राजनीति का शिकार हुआ है। सही मायने में आज उन व्यक्तियों की आत्मोन्नति खतरे में पड गई. जिनके जीवन में किसी महापुरूष का समावेश नहीं है।
राष्ट्र के विधि विधायकों को सावधान करते हुए पुरूषोत्तम प्रभु श्री श्री ठाकुर ने कहा था: ऋृषियों द्वारा स्थापित नियमों को न मानने के कारण. राष्ट्र के समक्ष इतनी असामंजस्यताएं आएंगी कि उन्हें दूर करने के लिए. नित नए कानून बनाने होंगे। उसके बाद भी व्यक्ति और समाज को एक सूत्र में बांध पाना कठिन होगा।”
उन्होंने हमेशा कहा है व्यष्टि से ही समष्टि है।अर्थात् व्यक्ति से ही समाज है। अतः आदमी को पहले आदमी बनाना होगा। श्री श्री ठाकुर ने कहा है:
“अमृत की ही संतति तू। अमृत ही तेरी जीवन धारा।।
मरण भजके जीवन तजके। होगा क्या सर्वहारा।।”
आज के परिवेश में जब मनुष्य आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति की भावधारा में बह रहा है. तो ऐसे में आवश्यक हो गया है कि हम पूनः अपना आत्म निरक्षण करें।
पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने स्पष्ट कहाÁ “सभी वर्णो की सामुहिक चेष्टा से ही समाज बडा बन सकता है। प्राचीन काल में ऋृषि महर्षि ही समाज के नियन्ता होते थे।वे लोग इस बात पर बराबर ध्यान रखते थे कि कि मनुष्य कहीं से भी प्रवृति परायण न बन जाए।शिक्षा दीक्षा. समाज – व्यवस्था. शार्दी विवाह इत्यादि का ढांचा वे ही तैयार करते थे।
समाज में जब तक ऋृषि महर्षियों का अनुशासन. शक्तिशाली रहा तब तक साधारण मनुष्य कम ही विभ्रान्त हुआ। किन्तु आज पाश्चात्य शिक्षा के सम्मुखीन होकर. सबकुछ क्षीण भीन्न हो गया।”
आज परिवार – समार्ज राष्ट्र में जो कुछ दीख रहा है। क्या हम सचमुच ऐसे थे?
क्या आज हमने अपने को उदारवादी कहलाने के लोभ में. अपनी आत्म मर्यादाशीलता नहीं गंवाई है? दुर्भाग्य की बात है हम पाश्चात्य शिक्षा की अच्छाई को ग्रहण करने में असमर्थ रहे।। हमने आत्म अवज्ञा अपनाई है।
हम सभी गुरू भाई बहन इस लिए भाग्यशाली हैं कि हमारे पास आज के विभ्रान्त युग में कैसे रहना है? कैसे चलना है? यह सब बताने के लिए। श्री श्री ठाकुर का दिखाया हुआ सत्मार्ग है. सहज सरल विधान है।
इतना ही नहीं! स्वयं श्री श्री ठाकुर. आचार्यदेव परमपूज्यपाद श्री श्री दादा एवं पूज्यनीय बबाई दा के रूप में हर समय हर घडी हमें थाम कर चल रहे हैं।
आज उनकी दया से एक बार फिर हर व्यक्ति एक दूसरे को बचाने और बढाने के भाव को लेकर एक दूसरे के करीब आ रहे हैं।वैमनस्यकता दूर हो रही है।यही तो ईश्वरीय भाव है।
अगर सम्पूर्ण नारी जीवन को एक अन्तरद्रष्टा की संज्ञा दी जाए तो शायद अतिशियोक्ति नहीं होगी। परन्तु तबॐ जब नारी अपनी स्वसत्ता को जागृत करले। पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने नारी नीति के माध्यम से नारी चरित्र का जो एक उच्चत्तम आदर्श प्रस्तुत किया है। उसका मनन व अनुसरण कर कोई भी नारी अपने चरित्र को उन्नत और आदरणीय बना सकती है।
हिंषा और प्रति हिंषा के भावः से दबा राष्ट्र विदेशी ताकतों और साम्प्रदायिकता की आग में झुलश रहा था। बिदेशी पद्यति पर राजनैतिक आन्दोलन प्रारम्भ किए जा रहे थे। भारतीय संस्कृति की भावः धारा को बगैर समझे वरिष्ठ राजनेता. पश्चिमीकरण का अन्धानुकरण कर रहे थे। धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदार मानव मानव के बीच में भेद करा रहे थे। ऐसे दुषित व कुत्सित मनोधरा से प्रशस्त शताब्दी में श्री श्री ठाकुर. के एकत्व के निमित अनादि व अनंत प्रेम का स्पर्श प्रदान करने. इस धरा पर विराजित हुए।
श्री श्री ठाकुर के मतानुसार: " प्रत्येक सच्चा धार्मिक व्यक्ति सच्चा हिंदू भी है. सच्चा मुस्लमान भी है और सच्चा इसाई भी है। जहाँ कही इसमे व्यतिक्रम दिखाई देता ह वहां धर्म नहीं है. धर्म के नाम पर कृत्रिमता है. पाखंड है।
इस बात को उन्होंने सिर्फ. कहा ही नहीं. धर्म समन्वय की बात कहकर वे मौन नहीं रहे. बल्कि हिंदू सिख मुश्लिम इसाई इन सबको बिना धर्म परिवर्तन कराये. एक ही मंत्र द्वारा दीक्षित करके. अध्यात्मिक अनुभूतियों की समानता की सत्यता का अनुभव कराया।
व्यक्ति जब अपने शरीर से. साधना बल द्वारा अनंत चैतन्यशक्ति एव आत्मसाक्षात्कार की उपलब्धि प्राप्त करता है. तब अनुभूतियाँ अलग अलग कैसे हो सकती हैं? वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्यात्मिक सत्य की अन्वेषण शाला खोलकर. पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने धर्म समनवय की दृष्टि से एक नया दृष्टिकोण जगत को दिया।
धर्म परिवर्तन को विश्वासघात कहते हुए. उन्होंने स्पस्ट कहा:– "कभी कोई महापुरूष धर्म त्याग कराने नही आते। महापुरूष आते हैं परिपूर्ण करने. उन्नति और विकाश के पथ का विस्तार करने।"
श्री श्री ठाकुर ने कहा : “धर्म परिवर्तन का अर्थ है पितृ रक्त धारा को विछिन्न करना। पितृ रक्त धारा में रहता है जीव कोष का अविनश्वर फूल !
इस अविनश्वर फूल अर्थात बीज में पितृ पुरुषों का ज्ञान. रूप. ओज एवं सद्गुण विराजित रहते हैं।धर्म परिवर्तन से उस रक्त धारा के ज्ञानकोष में अविरोध आ जाता है। उन्नत जीव कोष दूषित और छिन्नतर हो जाता है, जिसके कारण विश्वास घातकता का मादा बढ़ जाता है, आत्मिक विश्वास मर जाता है। पितृ रक्त धारा से विछिन्न धर्मान्तरित व्यक्ति की ईश्वरीय धारा पर आस्था स्थाई नही रह पाती।
इस लिए किसी भी अवतार ने धर्म परिवर्तन की बात नही की, बल्कि अविनश्वर पितृ रक्त धारा को उन्नत करने की बात बताई है। इसलिए जो अपनी पितृ धारा से वंचित हो गए है. उन्हें पुनः अपनी पितृ धारा में लौट आना चाहिए।"
श्री श्री ठाकुर के सर्व धर्म महातीर्थ में सिर्फ धर्म पिपासु ही नहीं आये. बल्कि महात्मा गांधी. सुभाषचन्द्र बोस. देश बन्धु चित्तरंजन दास बोस. लाल बहादुर शास्त्री व अन्य राष्ट्रीय विधातागण भी अपनी अनेक समस्यों के समाधान हेतु समय समय पर आते रहे।
राजनीति पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा : – राजनीति है पूर्त नीति! अर्थात् पूर्ण करने की नीति। राजनीति धर्म का ही अंग है बाहरी वास्तु नहीं!"
श्री श्री ठाकुर एक ऐसे जीवंत आदर्श के रूप में मनुष्य मात्र के सामने उपस्थित हुए. जिनके समक्ष सम्पूर्ण वार्दविवाद, वृति–प्रवृति, नियंत्रित रहे। उन्होंने अपने असंख्य अनुयाइयों के ह्रदय के अज्ञान को दूर कर. प्रेम स्पर्श द्वारा आन्तरिक सुख का एक विलक्षण पथ प्रशस्त किया। एक तरफ उन्होंने आध्यात्मिकता को जीवन वृद्धि की दिशा में बढ़ने का पता दिखाया. तो दूसरी और विज्ञान को अमृत्व की प्राप्ति की दिशा में लगने का रास्ता बताया।
श्री श्री ठाकुर का प्राकट्य एक ऐसे सर्व त्यागी के रूप में हुआ. जिन्होंने कभी किसी चीज का त्याग नही किया। बल्कि सबको जीवन वृद्धि की दिशा में लगने का नवीन मार्ग दिखाया।
श्री श्री ठाकुर ने एक ऐसे मानवीय दल का सृजन किया जो अविश्वाश, अप्रेम भरे वर्तमान दूषित माहौल में विश्वाश, प्रेम, मिलन, भाईचारा के स्वर्गराज्य का निर्माण कर रहा है।प्रेम और पावनता के उद्गाता इस महामानव ने अस्ति वृद्धि के निमित सम्पूर्ण मनुष्य जाति को यजन, याजन, इष्टवृति का अमोघ कवच देकर अभयदान दिया। मानव जाति के उन्नयन के लिए अपनी अनगिनत वाणियों के माध्यम से धर्म, संस्कृति, वेद, शास्त्र, विवाह, सुप्रजनन, विज्ञानं, न्यायनीति, कूटनीति, राजनीति, प्रवृति, निवृति, शिक्षा इत्यादि असंख्य विषयों पर विज्ञान सम्मत समीक्षा की।
वर्तमान समय में लुप्त हो रही नारी मर्यादा की उच्च पराकाष्ठा को प्रतिष्ठित करने के लिए. नारी नीति पुस्तक के माध्यम से. नारी समाज को अपने वैशिष्ट्य में पुनः जागृत होने का आह्वान किया।
आज नारी उत्पीडन. नारी अत्याचार. बलात्कार. दहेज प्रथा. गरीब व पिछडे वर्ग पर अत्याचार. नीहित स्वार्थ के लिए नृशंस हत्याएं. अपहरण. बच्चों तक से अमानवीय व्यवहार जैसी घटनाओं के बीच आर्य संस्कृति की मर्यादा कहां रह गई हैं?
मुठ्ठी भर लोंगो के अदूरदर्शी सोच के कारण. आज पूरा राष्ट्र. आन्तरिक कलह. भ्रान्त प्रतिस्पर्धा और विभत्स राजनीति का शिकार हुआ है। सही मायने में आज उन व्यक्तियों की आत्मोन्नति खतरे में पड गई. जिनके जीवन में किसी महापुरूष का समावेश नहीं है।
राष्ट्र के विधि विधायकों को सावधान करते हुए पुरूषोत्तम प्रभु श्री श्री ठाकुर ने कहा था: ऋृषियों द्वारा स्थापित नियमों को न मानने के कारण. राष्ट्र के समक्ष इतनी असामंजस्यताएं आएंगी कि उन्हें दूर करने के लिए. नित नए कानून बनाने होंगे। उसके बाद भी व्यक्ति और समाज को एक सूत्र में बांध पाना कठिन होगा।”
उन्होंने हमेशा कहा है व्यष्टि से ही समष्टि है।अर्थात् व्यक्ति से ही समाज है। अतः आदमी को पहले आदमी बनाना होगा। श्री श्री ठाकुर ने कहा है:
“अमृत की ही संतति तू। अमृत ही तेरी जीवन धारा।।
मरण भजके जीवन तजके। होगा क्या सर्वहारा।।”
आज के परिवेश में जब मनुष्य आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति की भावधारा में बह रहा है. तो ऐसे में आवश्यक हो गया है कि हम पूनः अपना आत्म निरक्षण करें।
पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने स्पष्ट कहाÁ “सभी वर्णो की सामुहिक चेष्टा से ही समाज बडा बन सकता है। प्राचीन काल में ऋृषि महर्षि ही समाज के नियन्ता होते थे।वे लोग इस बात पर बराबर ध्यान रखते थे कि कि मनुष्य कहीं से भी प्रवृति परायण न बन जाए।शिक्षा दीक्षा. समाज – व्यवस्था. शार्दी विवाह इत्यादि का ढांचा वे ही तैयार करते थे।
समाज में जब तक ऋृषि महर्षियों का अनुशासन. शक्तिशाली रहा तब तक साधारण मनुष्य कम ही विभ्रान्त हुआ। किन्तु आज पाश्चात्य शिक्षा के सम्मुखीन होकर. सबकुछ क्षीण भीन्न हो गया।”
आज परिवार – समार्ज राष्ट्र में जो कुछ दीख रहा है। क्या हम सचमुच ऐसे थे?
क्या आज हमने अपने को उदारवादी कहलाने के लोभ में. अपनी आत्म मर्यादाशीलता नहीं गंवाई है? दुर्भाग्य की बात है हम पाश्चात्य शिक्षा की अच्छाई को ग्रहण करने में असमर्थ रहे।। हमने आत्म अवज्ञा अपनाई है।
हम सभी गुरू भाई बहन इस लिए भाग्यशाली हैं कि हमारे पास आज के विभ्रान्त युग में कैसे रहना है? कैसे चलना है? यह सब बताने के लिए। श्री श्री ठाकुर का दिखाया हुआ सत्मार्ग है. सहज सरल विधान है।
इतना ही नहीं! स्वयं श्री श्री ठाकुर. आचार्यदेव परमपूज्यपाद श्री श्री दादा एवं पूज्यनीय बबाई दा के रूप में हर समय हर घडी हमें थाम कर चल रहे हैं।
आज उनकी दया से एक बार फिर हर व्यक्ति एक दूसरे को बचाने और बढाने के भाव को लेकर एक दूसरे के करीब आ रहे हैं।वैमनस्यकता दूर हो रही है।यही तो ईश्वरीय भाव है।
अगर सम्पूर्ण नारी जीवन को एक अन्तरद्रष्टा की संज्ञा दी जाए तो शायद अतिशियोक्ति नहीं होगी। परन्तु तबॐ जब नारी अपनी स्वसत्ता को जागृत करले। पुरूषोत्तम प्रभू श्री श्री ठाकुर ने नारी नीति के माध्यम से नारी चरित्र का जो एक उच्चत्तम आदर्श प्रस्तुत किया है। उसका मनन व अनुसरण कर कोई भी नारी अपने चरित्र को उन्नत और आदरणीय बना सकती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें