संदीपन

4 फ़र॰ 2013

श्री श्री ठाकुर की भावधारा


भारतीय संस्कृति की पूनः प्रतीष्ठा का स्वर्णिम सोपान
भारत देश विकास के पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा है। यह बात हमें खुशी देती है। चाहे हम भौतिक प्रगति की बात करें या वैज्ञानिक प्रगति हर ओर हम बुलंदी के झंडे गाड़ रहे हैं। अर्थ के क्षेत्र में भी भारत ने स्वर्णिम सफलताएं पायीं हैं। लेकिन यह सोचनीय विषय है कि इस भौतिक प्रगति को आधार मानकर क्या हम अपनी मौलिकता नहीं खो रहे? इस दिखावे की प्रगति को ही सर्वस्व मान लेना ही क्या हमारी संस्कृति है? हमने हमेशा ज़िन्दगी के उत्तम सोपानों को ही आधार माना है। यही हमारे लिए दुर्भाग्य की बात है कि हम जीवन के आधार सूत्र देने वाले अपने वेदों, उपनिषदों जैसे ग्रंथों को भूलकर भौतिकवाद में फंसे हैं।
आज हर तरफ भौतिकवाद का फैलाव है। इस युग में एक ओर जहां हमारा रूझान विस्तार की ओर है वहीं हमारे लिए आवश्यक है अनेकानेक विशिष्ट्य गुणों से युक्त हमारे देश की महान् संस्कृति की कहीं उपेक्षा हो जाए।
क्योंकि आज जहां विश्व पटल पर दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की उत्पति वाले कण की खोज कर भगवान के करीब पहुंचने का दावा कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक पिछड़ेपन के शिकार दलित पीड़ित लोग सदैव समस्याओं से जुझते ही रहते हैं।
विकास के कितने भी दावे कर लिए जायें पर हकीकत आज भी वही है कि भय हिंसा अत्याचार अनाचार जैसे भयावह परिस्थिति में शिक्षा और ज्ञान की कमी से जूझ रहे लोगों में अंधविश्वास जड़ तक समाया हुआ है।
ऐसे में मानव जाति के लिए आवश्यक है एक ऐसे स्तम्भ की जो समय और काल की कसौटि पर हमें खरा रखते हुए हमारे अस्तित्व वैशिष्ट्य को अक्षुण रख देश की महान् संस्कृति की आग जन जन में प्रसार करे।
इस स्तम्भ का काम किया है युग पुरूषोत्तम परमप्रेममय श्री श्री ठाकुर अनुकूल चन्द्र जी के महान् विचारों ने।
आज एक तरफ जहां भौतिक वाद हमें चिढाता है कि, ‘हमारे पास क्या है’, वहीं दूसरी ओर श्री श्री ठाकुर की भावधारा में आकर हम जान पाए हंै कि, ‘हम क्या हैं
भौतिक वाद बाहरी व्यवहार की वस्तु है, श्री श्री ठाकुर की भावधारा देश की महान् संस्कृति को जीवन में उतारने का एक आन्तरिक रास्ता है।
भौतिक वाद साधन है, जबकि ठाकुर की भावधारा साध्य है। साध्य का तात्पर्य अन्तिम लक्ष्य से है, जिसमें असीम सन्तुष्टि का अनुभव होता है और इस असीम सन्तुष्टि की प्राप्ति के लिए जो विधि अपनाई जाती है, वही तो ठाकुर के बताए पथ हैं जिन्हें हम यजन याजन ईष्टभृति कहते हैं।
भौतिक वाद का प्रसार तीव्र गति से होता है, किन्तु ठाकुर की दया का लाभ धीरेधीरे लेकिन लगातार होता है।
भौतिकवादी युग में भौतिकवाद के साधन में रहते हुए हमारे लिए  आवश्यक है कि हम ऐसी मानसिकता के साथ कम से कम एक हाथ की दूरी अवश्य बनाए रखें। तभी ठाकुर की दया को पाने के रास्ते को खुला रख सकेंगे।
क्योंकि संत कबीरदास जी ने कहा है : प्रेम गली अति सांकरी, तामें दोऊ समाई।
क्योंकि भौतिकवाद को प्रार्थमिकता देने वाली मानसिकता के साथ श्री श्री ठाकुर की भावधारा को जीवन में उतार पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। श्री श्री ठाकुर की भावधारा वह पारस है. जिसके अन्दर शुद्ध भाव प्रवेश किया जाए तो उसके संस्पर्श से जीवन को कंचन होने से कोई रोक ही नहीं सकता।
श्री श्री ठाकुर की भावधारा में प्रवेश का मतलब ही है भारतीय संस्कृति के महान् सद्गुणों को जीवन में उतारना।
भारतीय संस्कृति क्या है?
भारतीय संस्कृति का सही मुल्यांकन करने के लिए भी श्री श्री ठाकुर की भावधारा को समझना पड़ेगा।
ठाकुर की भावधारा हमारे जीवन में एक प्रेरणा के रूप में उभर कर अपनी महान् संस्कृति की गौरवशाली अनुभुतियों के साथ हमें प्रति पल जीने की प्रेरणा देती है। जिसके फलस्वरूप हमारा व्यवहार औरों के प्रति सौम्य बनता है और हमारे अन्दर शौर्य की भावना जागती है।
इतना ही नहीं हमारे अन्दर अपने एवं अपने. परिवार. समाज़ राष्ट्र के प्रति आन्तरिक दायित्व बोध जागता है। अपने प्रति आत्मबोध. अपने रिश्तों के प्रति आत्मबोध. अपने कर्तब्यों के प्रति आत्मबोध. अगर स्वतः जाग उठे तो यह निश्चय है कि अपने सम्बन्धों और कर्तब्यों के प्रति हमारी जागरूक और जिम्मेवारी की भावना बढ़ती है।
इतना ही नहीं. खान - पान, रहन - सहन,    अपनी दिनचर्या. अपनी नौकरी. व्यापार के साथ अपने परिवार बच्चों के लालन पालन के प्रति भी हम जागरूक और जिम्मेवार होते हैं। आज सर्वत्र जो भ्रान्ति भय अनाचार फैलता जा रहा है उसका मूल कारण ही तो सदाचार की कमी है। खान - पान, रहन - सहन,    अपनी दिनचर्या में सुधार के साथ ही आपसी रिश्ते औरों से मधुर और आत्मीय होने लगते हैं। परस्पर प्रेम की भावना बढ़ती है. जीवन तनाव रहित होता है। शरीर पर बीमारियों का प्रभाव कम होता है। व्यर्थ के पैसों के खर्च से बचत होती है। जीवन के निर्णय सही होते हैं। जीवन में शांति आती है। शांति आने से अधिक काम करने की इच्छा शक्ति जागती है। कहीं किसी के प्रति ग्लानि नहीं होती प्रतिशोध की भावना नहीं होती। जिसके फलस्वरूप आस पास के लोंगों रिश्तेदारों मित्रों के बीच हम अपने आपको सफल और गौरववान महसूस करते है।
श्री श्री ठाकुर की भावधारा में आने से इस तरह के अनेकानेक फायदे होते हैं।
हमारी संस्कृति अर्थात हमारे शास्त्र उपनिषद में कहा गया हैः
असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
भावार्थ : अर्थात हे ईश्वर! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
असत्य के मार्ग से सत्य के मार्ग में प्रवेश करना ही हमारी भारतीय संस्कृति है जो ठाकुर की भावधारा से पूनः हमारे जीवन में जीवंत हो उठती है। यह सब एक दिन में नहीं होता शनै शनै होता है।
व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक कुछ कुछ सीखता ही रहता है और अनुभव प्राप्त करता रहता है, यही गुण तो आगे चलकर व्यवहार का रूप धारण कर लेता है। यही व्यवहार सद्व्यवहार बनकर परिवार समाज को सुसंस्कृत और एक जूट बनाते है।
श्री श्री ठाकुर की भावधारा में आकर जीवन के सम्पूर्ण दायित्वों के प्रति जो एक आत्म बोध प्रति व्यक्ति में जाग रहा है, स्वभाव वश ही वह आत्मबोध अनेक पीढ़ियों तक हस्तान्तरित होता जा रहा है। मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है, अत: वह अपने ज्ञान के आधार पर अपने सीखे हुए व्यवहार को आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है।
यही कारण है कि श्री श्री ठाकुर को हम युग पुरूष कहते हैं। उनके सन्निकट मनुष्य जाति का प्रति दिन उत्थान हो रहा है भारतीय संस्कृति के द्योतक सदगुण पीढि दर पीढि हस्तांतरित होकर एक स्वर्णिम युग का निर्माण कर रहे हैं।
इसी हस्तान्तरणशीलता के कारण ही संस्कृति हज़ारोंलाखों वर्षों के बाद भी नष्ट नहीं होती है। 
आज की विषम परिस्थिति में जब हर रिश्तों के मायने बदले जा रहे हैं तो संस्कृति के मायने कैसे नहीं बदलेंगे। संस्कृति के नाम पर ही भारत की महान् संस्कृति की आत्मा को मसल देने जैसा घोर अनाचार हो रहा हे। कहावत है समस्या जितनी बड़ी होती है उसके समाधान के लिए उतने ही बडे व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है।
ऐसे में श्री श्री ठाकुर का धरा पर प्रादुर्भाव इस बात को ही दर्शाता है कि  ईश्वर अपनी दुनिया का अकेला ही बादशाह है। समय समय पर अपने प्रार्दुभाव के साथ कोटि कोटि व्यक्तियों को अपनी भावधारा में लाकर पूनः धर्म, प्रथा, परम्परा, रीतिरिवाज, रहनसहन, क़ानून, साहित्य, भाषा की रक्षा करता  है
देखा जाए तो प्रत्येक मनुष्य चाहे उसने जिस किसी संस्कृति में जन्म धारण किया हो। उसके अन्दर जन्म जात ही अपनी संस्कृति के गुण पाये जाते हैं। सही परिवेश के अभाव में आम व्यक्ति की अपने देश की महान् संस्कृति के प्रति आदर की भावना चाहे कम हो गई है फिर भी प्रत्येक व्यक्ति अपनी संस्कृति के सम्बन्ध में प्रयत्नशील रहता है, और यही प्रत्येक मनुष्य का जन्मजात गुण है तभी तो संस्कृति को व्यक्तिगत नहीं , वह सामाजिक कहा जाता है।
आवश्यकता है निष्ठा की श्री श्री ठाकुर की भावधारा में रहकर अपनी महान् संस्कृति के सही सूत्र को पकडे रखने की।
हम भारतीयों की संस्कृति सनातन है। हमें  अपनी सनातन संस्कृति के ज्ञान को श्रद्धा के साथ आत्मसात करने के लिए नित आगे रहना है।
जिस पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में हम कई बार अपने घुटने टेक देते हैं उनके महान् विचारक भी हमारी संस्कृति के आगे सर झुकाते हैं
महान् विदेशी लेखक आइन्स्टीन हम भारतीयों के ऋणी हैं जिन्होंने हमको गणना करना सिखाया जिसके अभाव में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें संभव नहीं थी।
प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक वर्नर हाइजेनबर्ग भारतीय दर्शन से जुड़े सिद्धांतो से परिचित होने के बाद मुझे क्वांटम सिद्धांत से जुड़े तमाम पहलु जो पहले एक अबूझ पहेली की तरह थे अब काफी हद तक सुलझे नजर रहे है।
एडवान्स्ड भौतिक शास्त्र की रिसर्च स्कालर ग्र्रीस की रानी फ्रेडरिका एडवान्स्ड भौतिकी से जुडने के बाद ही आध्यात्मिक खोज की तरफ मेरा रुझान हुआ। इसका परिणाम ये हुआ की श्री आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद या परमाद्वैत रुपी दर्शन को जीवन और विज्ञान की अभिव्यक्ति मान ली अपने जीवन में।
प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर का यह कहना है : सम्पूर्ण भूमण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कहीं नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करें।
प्रसिद्ध जर्मन लेखक फ्रेडरिक श्लेगल (1772–1829) ने संस्कृत और भारतीय ज्ञान के बारे में श्रद्धा प्रकट करते हुए ये कहाः  संस्कृत भाषा में निहित भाषाई परिपक्वता और दार्शनिक शुद्धता के कारण ये ग्रीक भाषा से कहीं बेहतर है। यही नहीं भारत समस्त ज्ञान की उदयस्थली है। नैतिक, राजनैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भारत अन्य सभी से श्रेष्ठ है और इसके मुकाबले ग्रीक सभ्यता बहुत फीकी है।
इन पक्तियों को पढ़ने के बाद हमें सोचना पडता है कि अपनी महान् संस्कृति के प्रति भारतीयों में इतनी उदासिनता क्यों है? हमारे देश ने ज्ञान के क्षेत्र में हमेशा हर देश को मात दी, फिर ऐसा क्या हुआ कि भौतिकता ज्ञान पर हावी हो गई?
और पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण ही हमारा आधार बन गया। उनसे अच्छाई ग्रहण करने के बजाय हमने उन्हें अपना लीडर मान लिया। ऐसा लगता है कि यह कमाल उस शिक्षा पद्धति का है जो अंग्रेजी शासन दंश रूप में भारत को दे गया। जिसके चलते हमने भारतीयता को त्याग दिया और अपनी संस्कृति को भुलाकर हम उस पर गौरव करना भूल गए।
श्री श्री ठाकुर ने भारत की महान् संस्कृति को अमृत कहते हुए कहा :
अमृत की संतति तु अमृत तेरी जीवन धारा।
जीवन तजके मरण भजके होगा क्या सर्व हारा?”
भारत की महान् संस्कृति का अपमान अगर आज कहीं हो रहा है तो भारतवर्ष में ही हो रहा है। और इसका एक मात्र कारण आम आदमी के पास सत् आचार्य की कमी है। जीवंत आदर्श की कमी है। एक ऐसे अद्वितीय व्यक्तित्व की कमी है जिसमें भारतीय संस्कृति पूर्णतः जीवंत हो।
और वह अपूर्व व्यक्तित्व है श्री श्री ठाकुर अनुकूलचन्द्र जी की भावधारा को सम्पूर्णतः अपने जीवन में अंगीकार कर चलने वाले हमारे आचार्यदेव परमपूज्यपाद श्री श्री दादा एवं पूज्यनीय बबाई दा।
उनके सान्निध्य में प्रत्येक मनुष्य को शान्ति मिलती है सद्मार्ग मिलता है तो इस लिए नहीं कि वे आचार्य के उच्च पद पर आसीन हैं। सत्संग के आचार्य के साथ साथ उनके व्यक्तिगत जीवन का स्वरूप भी जानना होगा। वे सबसे पहले एक अति सामान्य मनुष्य हैं वे एक आज्ञाकार पुत्र हैं कर्तब्यनिष्ठ पति हैं एक जिम्मेवार पिता हैं समस्त वाद विवाद से दूर एक स्नेही भाई हैं लाखों करोड़ों अनुयायियों पर स्नेह बरसाने वाले आचार्य हैं पृथ्वी पर विराजित सम्पूर्ण प्राणी का मंगल ही उनके जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य है। ऐसे अनगिनत सद्गुण उनके अन्दर जीवंत है। उन्होंने श्री श्री ठाकुर की प्रत्येक बात प्रत्येक  आज्ञा को शिरोधार्य किया है। उनके समक्ष जाकर उनके व्यक्तित्व की छाप का असर एक आदमी के उपर भी इस तरह से पड़ता है कि स्वतः उसके अन्दर से उसके प्रकृत गुण निखरने को व्याकुल होने एगते हैं।
श्री श्री ठाकुर की भावधारा एक क्रान्ति है एक ऐसी क्रान्ति जो प्रति व्यक्ति के जन्मजात गुणों को विकसित कर हमारे अन्दर नैतिकता का भाव जगाती है और हमारे विचार एवं हमारे नजरिये को जाति धर्म से उपर लाती है।
सौभाग्यवश श्री श्री ठाकुर की भावधारा में जो लोग पाए हैं तथा लाभान्वित हुए हैं. उनके सामने समाज का बहुत बड़ा दायित्व है। उन्हें ढूंढ़ निकालना होगा कि हमारे राज्य और देश की समस्याएं कहां हैं?
आज अधिकांश आदमी अगर यह सोच रहा है कि उसके जीवन का लक्ष्य केवल उसके उसके बच्चे परिवार के लिए कमाना है और उस कमाने के साधन से दूसरों की आजीविका या उसके जीवन पर कोई संकट आता है और उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती तो ऐसे विचारधारा वाले लोंगो के पास हमें श्री श्री ठाकुर की भावधारा को ले जाना ही होगा क्योंकि देश के सामने ऐसे विचार वाले लोग लाखों लाखों की समूह बनकर खड़े हैं।
बहुत से लोग यह सोचते ही नहीं कि उनकी अशोभनीय आदतों से परिवार. मोहल्ला. शहर राज्य की शांति भंग हो रही है और इसमें उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं।
हमारे देश की महान् संस्कृति में तो ऐसी मानसिकता के लिए कोई जगह नहीं। अतः आज की विषम परिस्थिति में हम सबका एकमात्र दायित्व है कि सत्संग के आचार्यदेव परमपूज्यपाद श्री श्री दादा एवं पूज्यनीय बबाई दा के निर्देशानुसार श्री श्री ठाकुर की भावधारा स्वयं ग्रहण कर अपने परिवार परिवेश में फैलाने के पुनीत कार्य में सर्वात्म भाव से आगे आएं। आज परिवार समाज राज्य और देश के समक्ष जितनी भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष समस्याएं हैंचाहे वे जाति सम्बन्धी हो. धर्म सम्बन्धी हो. हिंसा अन्य स्वार्थ सम्बन्धी हो. इन सबका समाधान पूर्णरूप से श्री श्री ठाकुर की भावधारा में समाहित है। 





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