संदीपन

1 सित॰ 2024

पुरुषोतम प्रभु -अंक १


सत्यानुसरण

"अर्थ, मान, यश, इत्यादि पाने की आशा में मुझे ठाकुर बनाकर भक्त मत बनो, सावधान होओ-- ठगे जाओगे; तुम्हारा ठाकुरत्व जागने पर कोई तुम्हारा केन्द्र भी नहीं, ठाकुर भी नहीं-- धोखा देकर धोखे में पड़ोगे।"

--श्री श्री ठाकुर

आध्यात्मिकता का मूल उद्देश्य आत्मिक उन्नति और सत्य की खोज है। इसे पाने के लिए समर्पण, निष्ठा, और ईमानदारी की आवश्यकता होती है। यदि आपकी साधना का केन्द्र सिर्फ बाहरी यश, धन, या मान-सम्मान है, तो आप असली ठाकुर, यानी ईश्वर, से दूर हो जाएंगे और धोखे में पड़ जाएंगे।

ठाकुर जी इस विचार को और गहराई से समझाते हुए कहते हैं कि यदि आपका ठाकुरत्व जागृत नहीं होता है, तो कोई भी आपका ठाकुर या ईश्वर नहीं हो सकता। इसका मतलब यह है कि ईश्वर का अनुभव और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए सबसे पहले आपको अपने भीतर के सत्य, चेतना और आत्म-साक्षात्कार को जागृत करना होगा। बिना इस आंतरिक जागरण के, आप सिर्फ बाहरी धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, या सामाजिक दिखावे में लगे रहेंगे, जो आपके लिए अंततः निरर्थक सिद्ध होंगे।

वे यह भी चेतावनी देते हैं कि यदि आपने खुद के भीतर ठाकुरत्व को जागृत नहीं किया और केवल बाहरी साधनों पर निर्भर रहे, तो आप अंततः ठगे जाएंगे। यह ठगे जाना सिर्फ बाहरी मायनों में नहीं, बल्कि आत्मिक स्तर पर भी होगा, जहां आप सही मार्ग से भटक सकते हैं और आपके लिए वास्तविक ईश्वर का अनुभव और उनका साक्षात्कार संभव नहीं होगा।

इस प्रकार, ठाकुर जी की ये पंक्तियाँ साधक को इस बात की चेतावनी देती हैं कि वे अपनी भक्ति और साधना को सच्चे आत्म-चेतना और समर्पण से करें, न कि सिर्फ सांसारिक लाभ की आकांक्षा में। यह संदेश हमें यह भी सिखाता है कि आध्यात्मिक यात्रा में ईमानदारी, सच्चाई, और आंतरिक जागरण का महत्व कितना अनिवार्य है। केवल बाहरी धार्मिक कृत्यों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती, बल्कि इसके लिए आत्म-साक्षात्कार और आत्म-समर्पण की आवश्यकता होती है।

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