श्रीश्रीठाकुर ~ अनुतप्त हुए व्यक्ति को परमपिता तो क्षमा किये हुए हैँ । अनुतप्त होने का अर्थ है स्वयं अपने भूल को समझ कर उसे परित्याग कर परमपिता के पथ पर चलना । इससे अपकर्म का फल धीरे-धीरे कटता है । बुद्धि परिशुद्ध होती है । अन्तर मेँ यदि खराब बुद्धि हो, तो वह बाधाएँ खड़ी करती हैँ । जिसका उद्देश्य है इष्टस्वार्थ और इष्टप्रतिष्ठा को विसर्जन देकर आत्मस्वार्थ और आत्मप्रतिष्ठा को मुख्य बनाकर चलना । उसका परिवर्तन होने की कम ही आशा है । धर्म याजियोँ मेँ यदि प्रधान हो तो मनुष्य के अन्दर अश्रद्धा बढ़ेगी ही मतलबबाज व्यक्तियोँ से दूर रहना ठीक है । .....आ॰प्र॰, एकादश खण्ड, पृष्ठ सं॰160 .....
JOY GURU.
-ऋषभ
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