संदीपन

25 मार्च 2015

श्री श्री ठाकुर अनुकूल चन्द्र जी ने कहा है -"गुरु ही होते है ईश्वर (निराकार) की साकार (दृश्य) मूर्ति।"

यहाँ एक प्रश्न उठता है कि फिर गुरु कौन होते है ? तो गुरु या सदगुरु सिर्फ और सिर्फ मनुष्य जाति का एक पुरुषोत्तम , रसूल या प्रोफेट ही होते है और कोई नहीं बाकि सब आचार्य हो सकते है जो उन्ही के द्वारा नियुक्त हो स्वमेव घोषित नहीं। 

एक प्रश्न और उठता है कि मनुष्यों के लिए पुरुषोत्तम , रसूल या प्रोफेट की क्या आवश्यकता है ? 

ईश्वर तो सबका है, सब पर उसकी कृपा होती है। सब पर उसकी कृपा होती है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सूर्य का सौर मंडल के सभी ग्रहों और उपग्रहों पर होता है वह सामान रूप से सभी को अपनी उर्जा देता है लेकिन जो उसके सबसे करीब होता है उसे सबसे ज्यादा ऊर्जा मिलता है। 

ईश्वर का निराकार स्वरुप की उपासना से वह चाहकर भी किसी की मदद या अपने सन्देश को नहीं पहुँचा सकता है। 

उसके लिए उसे एक बॉडी की जरूरत होती है जो मनुष्यों के बीच में जाकर उनकी मदद कर सके या अपने संदेशों को पहुँचा सके। 

इसलिए वे नर देहधारी बन कर उनके सभी गुणों अपने साथ लाते है। यदि वे कभी किसी से मुखातिब होते है या प्रकट होते है तो इन्ही महामानवों में से किसी एक के रूप में होते है। 

वे सब एक है फिर भी अनेक नामों से अनेक रूप में नजर आते है। ऐसा प्राकृतिक विभिन्नता भौगोलिक विभिन्नता और समयान्तर (युगान्तर ) की वजह से होता है .. वे खुद को अपने प्राकृतिक विधान ... वैज्ञानिक मत और मनुष्यों के क्रिय्कलापों से अलग नहीं रखते।

 जैसा हमारा स्वरुप है वैसा ही उनका भी स्वरुप है वे हम मनुष्यों से अलग नहीं है। हम इनसे अलग नहीं वे हमसे अलग नहीं। एक बात, हम कोई वैज्ञानिक शोध या अविष्कार करते है तो उनका अस्तित्व हमें कहाँ से मिलता है ?.. या कच्चा माल हम कहाँ से प्राप्त करते है ? 

ये सभी प्रकृति में कही ना कही मौजूद होती है जिन्हें हम सिर्फ उजागर कर देते है। मनुष्य जाति अपने उत्पति काल से ही वैज्ञानिक शोध करते आया है और विकास करते आया है।
जयगुरु

1 टिप्पणी:

quandahzadra ने कहा…

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