संदीपन

6 जून 2014

श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति : भाग 1

श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति की मीमांसा वैसे ही है जैसे किसी वृक्ष की जड को ढूंढना उसकी गहराई को जानना और फिर उसे मनोभाव से मुग्ध होकर सींचना।

 
श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति को जिसने जीवन में आत्मसात किया वह व्यक्ति सही मायने में  सन्यासी है। श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति का ही प्रभाव होता है कि व्यक्ति के अन्दर कोई आकांक्षा शेष नहीं रह जाती। जो व्यक्ति श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति में जितना लीन है अपने अन्दर के स्वरूप को वह उतना ही जान पा रहा है।
श्री श्री ठाकुर नित्यप्रति आचार्यदेव परमपूज्यपाद श्री श्री दादा व पूज्यनीय बबाई दा में विराजित हैं। उनके संग व निर्देश पर चलकर ही श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति का अंकूर प्राणों में फूटता है। आचार्यदेव परमपूज्यपाद श्री श्री दादा व पूज्यनीय बबाई दा का निर्दश पालन व्यक्ति को उसके स्वरूप के मूल में प्रकृत भाव से लगाए रखता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति के प्राणों को   ईश्वरीय भक्ति का आंतरिक सुख प्राप्त होता है। परिवार व समाज के अन्दर रहते हुए जगत के सारे कार्य करते परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त होती है। बह्य प्राप्ति की बात शब्दों के बजाय अनुभूति में आने लग जाती है।
श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति के प्रभाव से व्यक्ति को यह अनुभूति होने लगती है कि श्री श्री ठाकुर ही एक मात्र पूर्ण हैं सत्य है ब्रह्य हैं। समस्त जगत में जो कुछ भासित हो रहा है वह उनका ही सनातान अंश है उनकी ही छाया है उनकी ही कृति है।
श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति में व्यक्ति जैसे जैसे अपनी आत्म सत्ता के समीप पहुंचने लगता है उसे अपने अस्तित्व में पूर्णत्व की अनभूति होने लगती है। उस व्यक्ति को अपने आंतरिक स्वरूप का आभास होने लगता है।अपनी आत्मा के उपर पडे जन्मों के संस्कार रूपी बादल छंटने लगते हैं मन अन्यत्र विचलित नहीं होता।
सही मायने में यही है श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति जिसके प्राणास्पर्श से व्यक्ति जीवन के चरमलक्ष्य को अपने अन्दर आत्मसात कर पाता है। श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति में व्यक्ति अपने जीवन में सम्पूर्ण भौतिक कार्य करते हुए भी अपने आपको उनसे निर्लेप रख पाने में समर्थ हो पाता है।
जो व्यक्ति श्री श्री ठाकुर की प्रेमाभक्ति में लीन हैं वही वास्तव में मुक्तिपथ पर हैं। ऐसे व्यक्ति प्रत्येक जीव को प्रिय होते हैं।

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