संदीपन

4 जून 2011

ठाकुर की कृपा

ठाकुर का प्रार्दुभाव प्रत्येक प्रत्येक व्यक्ति के सम्पूर्ण लाभ के लिए ही हुआ है. उनकी दया सब समय बरस रही है.
आवश्यकता है आत्म समर्पण की! आवशयकता है अपने अन्दर के ठाकुर को जगाने की!

अपने सभी सत्संगी गुरु भाई बहनों से मेरी अपील है की वे प्रत्येक छन्न इस बात का विशेष ध्यान रखे की हमारी वृत्ति कहीं बहरी सुख साधन की तरफ तो नहीं बहक रही है.

हमारा लक्ष्य है अपने गुरु की आज्ञापालन ! उनकी अहेतु दया !!

हमे समाज में व्याप्त बहुत सी बुराइयों से बचना है.

हमें अपने आपको ऐसा बनना है की हमारे गुरु हमारे आचार्य अपने अन्दर प्रसन्नता अनुभव करें!
हम और आप खुली आँखों से  देख रहे हैं आज समाज केवल नाम, यश, धन, प्रभुता पाने के लिए पागल है.
हो एकता है कुछ समय के लिए इन चीजों से सुख मिले पर क्या यह चीजें मनुष्य के जीवन को सार्थक कर सकती है?

राक्षस राज रावन के पास ये सभी चीजें थी. ये सम्पूर्ण सुख उन्होंने अपने साधन व बल से प्राप्त किए  थे .
सबकुछ  रहते हुए भी उनकी दशा क्या हुई? यह हम आप अब जानते हैं.

इसीलिए रामायण में कहा गया है :-
"बिनु सत्संग विवेक न होई. राम कृपा बिनु सुलभ न सोई.."

फैसला हम सत्संगियों  को लेना है की  हमें अपने जीवन में भौतिक साधन चाहिए या  आन्तरिक शांति ?

हमें राक्षसराज रावन की तरह सम्पत्तिवान बनना है या विवेकनद की तरह अपने आचार्य श्री श्री दादा व बबाई डा  की आज्ञा पर चलते हुए महा सामर्थ्यवान बनना है?

आज हजारो रावन सुख पाने की लालसा में  धन-संपत्ति अथवा नाना प्रकार के लालच में  चारों ओर  घूम रहे हैं. राम चरित मानस में कहा  गया है :

"सो दससीस स्वान की नाइ . इत् उत् चितई चला भारियाई.
इमि कुपंथ पग देत खगेसा. रह न तेज़ तन बुधि बल शेषा."

अर्थात रावन कुत्ते जैसा बन गया है. उसकी अपनी चौर्य वृत्ति ने उसके सम्पूर्ण गुण ऐश्वर्य  तेज, तन, बुधि, बल नस्ट  कर दिए.
यह ध्रुव सत्य है इक मनुष्य की अपनी ही वृत्ति उसके नाश का कारण बनती है. 

हमने ठाकुर का सतनाम पाया है इस लिए हमें विशेष रूप से सावधान  रहने की आवश्यकता है.
ठाकुर का सतनाम पाकर भी अगर जीवन में अधूरे रह गए तब तो वृथा जीवनं वृथा मरणं की बात ही होगी.
वन्दे पुरुशोत्तमम!!!!
 

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