संदीपन

25 दिस॰ 2010

बसुधा पर अमन चैन की बंशी

सूर्य उदित होने में विलम्ब है।वेद ध्वनि के मंद मंद स्वर से देवघर सत्संग विहार का सारा प्रांगण सुहासित पावन सा प्रतित हो रहा है।रूक रूक कर चिड़ियों के मधूर गान. कोयल के मीठे स्वर मानो मन की तरंगो को छूते हुए आह्वान कर रहे हैं कि हे मन जागॐ जाग उस नींद से जिसने तेरी जागी आंखों को भी सुलाए रखा है।देख जाग उठे हैं परमपूज्यपाद दादा और जाग उठे हैं पूज्यनीय बबाई दा जिनकी छत्रछाया में बसुधा पर अमन चैन की बंशी बज रही है।
मेरी आंखें खुल जाती हैं एक अनाम सी विश्रान्ति के साथ शरीर से पहले मन उठ जाता है।दिल में उल्लास के साथ एक अजीब तरह का भाव उठ रहा है शब्द नहीं मिलता उस भाव को क्या कहुं।यह जो गेस्ट हाऊस का कमरा है थोडे दूर पर सामने ही तो ठाकुर परिवार है।यह वह पावन भूमि है जहां त्रिभुवन का सम्राट श्री श्री ठाकुर सशरीर नर लीला में युक्त रहे हैं।यहां की पावन मिट्टी यहां की जलवायु यहां के वृक्ष मानो सभी आज भी श्री श्री ठाकुर के स्पर्श से स्पन्दन पा रहे हैं।
थोड़ी देर बाद ही प्रार्थना होने को है।श्री श्री ठाकुर की प्रार्थना जब जहां भी करें एक विशेष शान्ति ही प्रदान करती है पर यहां देवघर सत्संग में ठाकुर बाड़ी के समक्ष जिस स्थान पर स्वयं कूल मालिक बैठा करते थे। ऐसा लगता है. मानो वे आज भी यहां उपस्थित हैं परमपूज्यपाद दादा एवं श्री श्री बबाई दा रूप में।
बाहर निकलते ही देखा एक एक कर भक्त गण प्रार्थना स्थल की ओर बढ़ते जा रहे हैं।मंद मंद बहती वायु फि पंक्षियों की कलरव दोनों ओर से झुके झुके वृक्ष तरह तरह के पौधे जगह जगह पर लिखी गई श्री श्री ठाकुर की वाणियां मानों प्रेरणा दे रही है : हे मनुष्य जागो! अपने जीवन के महत्व को समझो! तुम उस परमपिता की सन्तान हो. जो सर्वशक्तिमान है।”
सभी आगे बढ़ते जा रहे हैं मैं भी चल रही हूं प्रार्थना प्रारम्भ होने को है श्री श्री बबाई दा आ गए हैं।उपस्थित सभी भक्त वृन्द अपने अपने स्थान से खड़े हो गए हैं।श्वेत उज्जवल वस्त्र मधूर मुस्कान गम्भीर मुद्रा स्वर्ण सी कान्ति समान दैदिप्यमान  मोहिनी छटा बिखेरता मुखमंडल देख मेरा मन अधिर हो मुझसे कहा उठा : इस धरती पर इनके रूप को देखने के समान अगर अन्य कोई खुशी कोई तृप्ति कोई सुख है तो हे विधाता मुझे नहीं चाहिए।मुझे बस यह वरदान दो कि उनके मुखमंडल की छटा मैं देखती रहूं बस देखती रहूं।इनके समक्ष हाथ जोडूं शीश झुकाऊं इतना विवेक कहां बस सम्पूर्ण भाव से सर्वांग नत मस्तष्क हो जाता है।
ऐसा सुदर्शन व्यक्तित्व जो कोई देखता है उनका ही हो जाता है।प्रार्थना के लिए एक सामान्य मानव की भांति नीचे साधारण से आसन पर सामान्य रूप से अन्य गुरू भाईयों के बीच बैठ गए।
मन से बार बार निकल पड़ता है :
“धन्य है ठाकुर! यह कैसी लीला? जिनकी प्रार्थना हो रही है वह भी आपॐ जो नर रूप में सबके बीच प्रार्थना कर रहे हैं वो भी आप!” अन्तरात्मा से आवाज आ रही हैः “मालिक तेरी लीला समझ पाऊं शक्ति देना।”
कई लोंगो ने बार बार मुख से पूछा कई लोग अन्दर ही अन्दर अचम्भित हुए कई लोग रूष्ट हुए। स्पष्ट करना चाहती हूं कोई लालच कोई चमत्कार देखकर मैंने ठाकुर जी की दीक्षा ग्रहण नहीं की।जिस परिवार में जन्म लिया वहां का बचपन से ही माहौल था कुछ पाना है तो करके पाना है।संघर्ष को जीवन का सर्वोपरि मानने वाले मेरे जनक मेरे पिता से यही सीखा।
एक खुला माहौल मिला खुला सपना देखा कि सही रहना है किसी से नहीं डरना है।
लेकिन जब कर्म क्षेत्र में प्रवेश पाया तो सब कुछ अलग था।सुन्दर सुचरित्रवान विवेकशील पति कहीं किसी बात की कमी नहीं।बेइन्तिहा स्नेह देने वाले श्वसुर मान सम्मान देने वाली नन्दें फिर भी परिवेश कुछ ऐसा कि हर समय एक अभाव मन आत्मा पर प्रभावी कहीं कोई राहत नहीं।सबकुछ रहते हुए निराशा और अवसाद की परिसीमा में जीवन यापन किया मैंने।अन्तर्मन में मानो कुछ ऐसा था जो प्रस्फुटित नहीं हो पा रहा था।यह जो अन्तर्मन की तपस थी बस वही घुटन मुझे शान्ति नहीं लेने देती थी।
प्रेरणा का अभाव
प्रेरणा में कितनी ताकत है यह जाना मैंने ठाकुर जी के पास।जब चारों ओर अन्धेरा था केवल अन्धेरा
भरोसा किसे कहते हैं जीवन किसे कहते हैं आशा किसे कहते हैं सबकी परिभाषा जब मेरे जीवन से जा चुकी थी तब प्रवेश किया था सत्संग के युवाचार्य श्री श्री बबाई दा ने।
बचपन से पुस्तक पढने का शौक था अनगिनत पुस्तकों का अध्ययन किया था।मनोविज्ञान की छात्रा थी। इस संसार में सत्य और आस्था के नाम पर कहां कहां क्या क्या गलत भी होता है. बहुत कुछ प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष अनुभव था।और साथ में था एक ऐसे विवेकशील पति के रूप में मित्र का सान्निध्य! जो कहीं किसी स्थान में न रूकने देते. न उलझने देते।
शिलांग के मारवाडी समाज में सर्वप्रथम दीक्षा ग्रहण की थी श्रीमती द्रोपदी देवी जाजोदिया ने।एक ऐसी करूणा मयी देवी जिसे आचार्यदेव श्री श्री दादा भी मां कहते हैं।पूरा सत्संग परिवार उन्हें मारवाड़ी मां के नाम से ही पुकारता है।उनकी सत्चेष्टा से ही मेरा सत्संग जगत में दिनांक 18 जनवरी 1994 में प्रवेश सम्भव हो सका।
सतनाम ग्रहण किया दीक्षा प्राप्त हुई।पर कोई विशेष अनुभूति नहीं हुई।लगा था अचानक कुछ                            परिवर्तन होगा।पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।शायद उम्मीद ज्यादा थी चेष्टा कम थी।श्रीप्रकाश चन्द्र झा के माध्यम से दीक्षा प्राप्त हुई।ठाकुर जी को जान पाने में उनका बहुत अधिक सहयोग रहा।
श्रीमद्भगवद् गीता में कहा गया है जब जब धर्म की हानि जेती है तब तब आता।मुझे आपसे कुछ मांगने का भी हक़ नहीं।फिर भी इस मन की आदत खराब हो गई है कुछ न कुछ मांगना चाहता है : प्रभू बस आपकी याद और आपके ध्यान में रहुं और इसी तरह दुनिया से चली जाऊं।

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