संदीपन

12 फ़र॰ 2010

श्री श्री ठाकुर के जनम दाता


पिता : श्री श्री ठाकुर के पिता शिवचंद्र जी पबना जिलान्तर्गत ग्यवाखारा ग्रामनिवासी शाण्डिल्य गोत्रीय पंडित ईश्वरचंद्र चक्रवर्ती के कनिष्ठ पुत्र थे। वे सरल सात्विक उदार प्रकृति के आदर्श गृहस्थ थे और गृहस्थी जीवन का मुख्य व्रत अतिथि सेवा उन्हें प्राणो से ज्यादा प्रिय थी।
अतिथि को भोजन कराकर ही उन्हें संतोष नहीं मिलता बल्कि अभ्यागत को साक्षात् नारायण का रूप समझकर उनकी पूजा अर्चना करते। उनकी दानवीर प्रकृति अत्यन्त भिन्न थी। उनका समस्त सहाय्य दान सम्पुर्न्तः गुप्त रहता।
परिवार परिजन वाले भी उसका पता नहीं पाते। वे दान द्रिस्ती से दान नही करते बल्कि सर्वात्म अनुभूति से भावित होकर प्रत्याशा रहित दान करते। वे विद्वान महात्यागी एवं कर्मठ पुरूष थे।
माता : श्री श्री ठाकुर की माता मनामोहनी देवी बुद्धिमता एवं धर्म प्रयाण महिला थी।बचपन से ही राधा मदन मोहन की परम आराध्य थी। पुरवा साँची सद्कर्मों और शुद्ध भक्ति की प्रबलता से मात्र ८ वर्षों की उम्र में उन्हें सद्गुरु श्री श्री हुजुर महाराज से स्वप्न में सतनाम की प्राप्ति हुई। मनमोहिनी देवी को बहुत दिनों तक यह ज्ञात न था की स्वप्न में मंत्र देने वाली गुरु मूर्ति धरा पर जीवंत है। बहुत समय बाद मनमोहिनी देवी को गुरु दर्शन हुए। स्वप्न दर्शित गुरु की दिव्य मूर्ति साक्षात् अपने सन्मुख विराजित देख विस्मित रह गई।
माता मनमोहिनी को देखते ही गुरुदेव व्याकुल कंठ से कह उठे :- " माँ! सुशीला तुम आ गई?"
मनमोहिनी देवी अपने गुरु के चरणो में सरधा भक्ति से नतमस्तक हो गई।
सद्गुरु अंतर्द्रस्ता होते हैं। त्रिकालज्ञ होते हैं। अन्तर्भेदी द्रिष्टि से भूत वर्तमान भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है यह जानकर ही उनकी वाणी प्रषारित होती है।
माता मनमोहिनी की अंतर्भावना गुरुदेव से छुपी नहीं रही। दया, परोपकारिता, सौहाद्रिता, उदारता, सदाचार और पतिपरायाणताको, तेज़स्विता से सुसंपन्न महासौभाग्यशालिनी को देख गुरुदेव सहसा कह उठे :- " माँ! तेरे घर कूल मालिक स्वयं आएंगे।"
गुरुदेव के दर्शन के पश्चात् वे उठते बैठते सतनाम का सतत जाप किया करती। धीरे धीरे यह सतनाम उनके कंठ का स्वर मस्तिष्क की स्मृति जीवन चेतना बन गया। अन्तर से वह कूल मालिक को पुकारती।
चतुर्दिक अत्याचार अन्नाचार से पीरित परिवेश से विदग्ध हो वह तपस्वनी उस महामानव को संसार उद्धार के निमित्त अवतरित होने की आतुर ह्रदय से हर घड़ी प्रार्थना की या करती ।
अविरल नाम जपते जपते पवन ह्रदय से आर्ट क्रंदन करते करते उनका मन शरीर पर परिशुद्ध हो गए। अस्रुपुंह नयन से अहर्निश प्रभु चरणों में उनकी प्रार्थना पहुँचने लगी। प्रेमाश्रु में बल होता है आर्ट स्वर में प्रेम स्पर्श वेदना होती है अनारात्मा की आवाज़ से निर्गुण निराकार अन्नादि अन्नंत ईश्वरीय मूर्ति पिघल ही गए और सन्न १८८८ सरवन शुक्ला नवमी शुक्रवार को प्रथ ७ बजाकर ५ मिनुत पर पुरुषोत्तम इस धारा पर अवतरित हुए। नाम हुआ अनुकूल !
आज वाही दिव्य बालक श्री श्री ठाकुर के नाम से जगत पूज्य हुए।

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

अति सुन्दर जयगुरु