संदीपन

25 मार्च 2015

जो नित्यदिन नियमित रूप से यजन, याजन, इष्टभृति करता है उसके चेहरे पर एक द्युति दिख पड़ती है।

वह द्युति ही कह देती है कि वह परमपिता की सीमा में है। इसलिए शैतान या ग्रह उस पर कोई बड़ा आघात देकर घायल नहीं कर सकता।


जो वास्तव में इष्टप्राण होते हैं मृत्युकाल में इष्ट का स्मरण-मनन अव्याहत रहता है। फ़िर भी मनुष्य के लिए मृत्यु बड़ी ही वेदनादायक होती है। मृत्यु के कारण ही मनुष्य को चिरकाल के लिए खो देना पड़ता है। 

उसका अस्तित्व रहने के बावजूद भी उसके साथ मेरा कोई प्रत्यक्ष योगायोग नहीं रहता। यह बात ही बड़ी मर्मान्तिक है इसलिए मनुष्य अमृत-अमृत करते हुए पागल होता है। 

किस तरीके से मृत्यु को निःशेष करके वह अमर होगा यही उसकी कल्पना रहती है। मौत के हाथों से बराबर मार खाते रहने पर भी पराजय स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं है। 

मरता है फिर भी वह कहता है 'अमृत अमृत' । मनुष्य का जीवन ऐसी चीज है कि उसे अमृत को पाना ही होगा। जबतक उसे नहीं पाता है तब तक वह शांत नहीं होगा।

 इसलिए स्मृतिवाही चेतना यदि हम लाभ कर सकें तो बहुत कुछ मृत्यु का अतिक्रमण कर सकेंगे, यह कहा जा सकता है।
आलोचना प्रसंग -३, पृ.स.-5

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